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* प्रथम सगं*
६१ हूजिये और इस इच्छाको त्याग कीजिये । क्लेशकारक तपमें भला क्या रक्खा है ? कहाँ कठोर तप और कहाँ आपका सुन्दर: कोमल शरीर ! आप तो राज्य भोगते हुए प्रजाका पालन कीजियेऔर वीरोंकी रक्षा कीजिये । " इस प्रकार प्रबल स्नेहमें पड़ी हुई प्रियतमाओंकी बात सुन राजाने उन्हें समझाते हुए कहा, - अपनी “प्यारियो ! सुनो
"जन्मदुःखं जरादुःखं, मृत्युदुःखं पुनः पुनः । संसार सागरे घोरे, तस्माज्जागृत जागृत ॥ "
अर्थात् — “इल भयङ्कर संसार सागर में जन्म, जरा और मरण का दुःख बारम्बार प्राणोको दुःख देता रहता है, इसलिये सदा जगे रहो । इस देहमें काम, क्रोध और लोभ-रूपी चोर टिके हुए हैं, वह तुम्हारे ज्ञान-तन्तुओंको हर लेते हैं, इसलिये सदा जगे रहना । माता, पिता, स्त्री भाई धन और गृह- इनमें से कोई तुम्हारा सङ्गी नहीं है, इसलिये ग़ाफ़िल मत रहो,—जगे रहो । व्यवहारकी बड़ी चिन्ता रखने और आशासे बँधे रहनेके कारण मनुष्य दिन-दिन क्षीण होनेवाली अपनी आयुको देख नहीं सकता, इसलिये जगे रहो । हे चेतन ! जरा, व्याधि और मृत्यु तीनों तुम्हारे पीछे लगी हैं, इसलिये प्रमाद न करो और बिना विलम्ब किये तुरत जागकर भागो । भागकर विश्राम लेनेके लिये भी न बैठो। इन्द्र और उपेन्द्र भी मृत्युके पंजेमें पड़ते है; तो इस कालके निकट प्राणियोंकी कौन रक्षा कर सकता है ? दुःखरूपी दावानलसे.
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