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*पार्श्वनाथ-चरित्र - पासही पड़ी हुई पत्थरकी बड़ीसी शीला उठाकर मरुभूतिके सिरपर दे मारी ; किन्तु इससे भी उसे सन्तोष न हुआ। फिर भी एक दूसरी शिला उठाकर क्रोधसे लाल-लाल नेत्र किये हुए उसने उसी पत्थरकी शिलासे बार-बार मारते हुए मरुभूतिका कचूमर निकाल डाला।
दूसरा भव। मारको तकलीफसे आर्तध्यानमें पड़कर मरा हुआ मरुभूति विन्द्याचलमें भद्र जातिके हाथियोंका यूथनायक हाथी हुआ। स्थूल उपलके समान कुम्भस्थल वाला, गम्भीर मुखवाला, ऊपर उठी हुई दण्डाकार सुंडवाला, अत्यन्त मद भरनेसे भूभागको पङ्किल करनेवाला, मदकी गन्धसे लुब्ध होकर आये हुए भ्रमरोंकी ध्वनिसे मनोहर, अनेक बाल हस्तियोंसे परिवेष्टित और जङ्गम पर्वतके समान वह हाथी चारों ओर शोभित होने लगा। कमठकी स्त्री वरुणा भी कोपान्ध होकर मर गयी और यूथनायककी स्त्री हुई । वह हाथी उसके साथ पर्वत, नदी आदिमें सर्वत्र घूमता हुआ अखण्ड भोग-सुख अनुभव करता हुआ क्रीड़ा करने लगा।
इधर पोतनपुरमें अनुपम राज्यसुख भोग करते हुए राजा अरविन्दने देखा कि शरद् ऋतु आ पहुँची। जलसे पूर्ण सरोवर और खिले हुए कास-पुष्प शोभित होने लगे। सर्वत्र सुभिक्ष हो गया और सब लोग सर्वत्र प्रसन्न चित्तवाले हो गये। उसी समय एक दिन राजा अरविन्द महलके ऊपर चढ़कर खिड़कीमें बैठे