________________
•प्रथम सर्ग प्रकार कहने लगे,-“हे स्वामी! हे त्रैलोक्य-नायक ! इस संसारसे मेरा निस्तार करो।" __ प्रति दिन ऐसी ही भक्ति करते हुए बहुत दिन बीत गये। धीरे-धीरे उनका बुढ़ापा आ पहुँचा। कहते हैं कि बुढ़ापा आने पर देह दुबली हो जाती है, दाँत टूट जाते हैं, आँखोंसे कम दीखता है, रूप बिगड़ जाता है, मुँहसे लार टपकती रहती है, अपने घर वाले हो बात नहीं मानते, यहाँतक कि पत्नी भी सेवा नहीं करती। ओह ! कैसे खेदकी बात है, कि बुढ़ापेमें अपना बेटा भी अनादर करता है । और भी कहा है कि बुढ़ापा आते ही मुंहसे लार गिरने लगतो है, दाँत गिर जाते हैं, मुंहपर तेजी नहीं रहती, शरीरसे जीर्ण हो जाता है, सिरके बाल पक जाते हैं, चाल धिमी पड़ जाती है, आँखोंको ज्योति जाती रहती है, उनसे सदा पानी गिरता है, तो भो तृष्णा-रूपिणी स्त्री व्यर्थ मनुष्यको सताती है, अर्थात् ऐसी हालत हो जानेपर भी तृष्णा पीछा नहीं छोड़ती।
इस प्रकार बुढ़ापा आ जानेपर राजा ललिताङ्गने अपने राज्य का भार अपने पुत्रको सौंपकर तृणकी तरह राज्य छोड़ दिया और सद्गुरूके पास जाकर दीक्षा ले ली। इसके बाद छट्ट और अठ्ठम आदि तप करते, बाईस परिषहोंको पराजित कर विधिपूर्वक चारित्रका पालन करते हुए अन्तमें अनशन करके ललिताङ्ग मुनिने औदारिक देहका त्याग किया और स्वर्गको चले गये। वहाँ देव-सुख भोग करते हुए महाविदेहमें सिद्ध-पद पावेंगे।
ललिताङ्ग कुमार-कथा समाप्त ।