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* पार्श्वनाथ चरित्र *
होती है ।" अब ललिताङ्ग राजा भी श्रीसंघकी भक्ति करते, एवं नित्य धर्म - कृत्य करते हुए दिन बिताने लगे ।
एक दिन संसारकी असारताकी चिन्ता करते हुए राजाने श्रेष्ठरत्नोंके स्थम्भसे सुशोभित, सुवर्णकी भित्तिसे देदीप्यमान, चमकती हुई मणियोंसे जड़े हुए उत्तान और सुन्दर सोपानसे विभू षित, सर्वाङ्ग-सुन्दर, पवित्र, पुण्य-मन्दिरके समान, रङ्ग मण्डप, स्नात्रमण्डप, और नृत्यमण्डप आदि चौरासी मण्डपोंसे मण्डित और दिव्य शिखरोंसे सुशोभित एक सुन्दर जिनेन्द्रभवन बनाया और उसमें श्रीआदिनाथ भगवानके बिम्बकी विधि-पूर्बक प्रतिष्ठा करवाकर स्नात्र पूजा करवायी । अनन्तर अगर, चन्दन और कपूरसे मिले हुए सुगन्ध- द्रव्योंका लेपन कर, भक्तिपूर्वक आभूषण पहना, शतपत्र, जूही आदि पुष्पोंसे उसकी अर्चा कर, राजाने कृष्णागरुका धूप जलाया । तदनन्तर उत्तरासङ्ग धारण कर शुद्ध प्रदेशमें स्थित हो, जिनेन्द्रके सामने भूमि घुटने टेक तीन बार नमन कर, हाथ जोड़े हुए राजाने इस प्रकार स्तुति करनी आरम्भ की, - “हे युगादि- परमेश्वर ! हे त्रिभुवनाधीश ! आपको जय हो । हे त्रैलोक्यतिलक ! आपकी जय हो / हे वीतराग, आपको नमस्कार है । हे स्वामी ! हे जगन्नाथ ! हे प्रणत- पाल ! आप प्रसन्न हुजिये । हे विभो ! मैं आपको शरण में हूँ । हे सदानन्दमय ! हे स्वामी ! हे करुणा-सागर ! इस लोक और परलोकमें आप ही मेरी शरण हैं।" इस प्रकार जिनेन्द्र भगवानकी स्तुति कर, आँखोंमें आनन्दके आँसू भरे खड़े होकर फिर इस