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* पार्श्वनाथ चरित्र *
मिथ्यात्व कहते हैं । इसे और सम्यक्त्वके इन पाँचों अतिचारों को त्याग देना चाहिये :
"शंका कांक्षा विचिकित्सा, मिथ्या दृष्टि प्रशंसनम् ।
तस्य संस्तवश्च पञ्च, सम्यक्त्वं दूषयन्त्यमो ॥"
अर्थात् " शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्या दृष्टिकी प्रशंसा और उसका परिचय, ये पाँच अतिचार सम्यक्त्वको दूषित करते हैं।" इसलिये इन शङ्कादि चोरोंसे उसे बचाना चाहिये । यन्त्रमन्त्र भी शङ्का करनेसे सिद्ध नहीं होते। इसके बारेमें मैं तुम्हें एक दृष्टान्त देता हूं, सुनो
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" वसन्तपुर नामक नगरमें गन्धार नामक एक श्रावक रहता था। वह देव पूजा, दया, दान और दाक्षिण्य आदि गुणोंसे विभूषित था । वह प्रतिदिन पूजाकी सामग्री साथ ले दूरके 'उद्यानमें बने हुए जिन चैत्यमें जाकर जिन-पूजा किया करता था। वहीं जिन पूजा करता हुआ वह निरन्तर एक मनसे ध्यान लगाया करता था ।
एक दिन जिनेश्वरका अभिषेक कर, सुगन्धित कुसुमादिसे अर्च्छित कर, प्रसन्न -मन होकर उत्तम स्तवनोंसे जिनस्तुति कर रहा था, इसी समय कोई महाजैन परमश्रावक विद्याधर वहाँ जिनेश्वर भगवान्की वन्दना करने आया। उसने गन्धार श्रावक को देख और उसकी स्तुति सुन बड़े ही आनन्दके साथ उसके पास आकर कहा, “हे धार्मिक ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं । आज मेरे काम और नेत्र तृप्त हो गये। इसलिये तुम जो