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* पार्श्वनाथ चरित्र *
आपकी सेवा कर सकू । अब ऐसा करें, जिसमें मैं इन चरणकमलोंसे फिर बिछुड़ने न पाऊँ ।”
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पुत्रकी ये बातें सुन राजा तो किंकर्त्तव्य विमूढ़ बन गये किन्तु कुछ देर के बाद धैर्यधारण कर बोले, – “प्यारे पुत्र तुम मुझे उत्तम कार्य करते हुए बाधा मत पहुँचाओ । आखिरकार तो ये दोनों राज्य तुम्हारे ही होंगे, इसलिये मुझे व्रतही लेना उचित है ।" इस तरह समझा-बुझाकर राजाने अपने विलक्षण तेजस्वी राजकुमारको बड़ी धूम-धामके साथ गद्दीपर बैठा दिया। कुमारको सिंहासन पर बैठानेके पश्चात् राजाने उन्हें संक्षेपमें यह शिक्षा दी कि तुम इस तरह राज्यका पालन करो, जिसमें प्रजा मुझे भूल जाये, मेरी याद न करे । अनन्तर मन्त्री और सामन्त आदिको बुला कर कहा, “आजसे तुमलोग राजकुमारकी हो आज्ञा मान कर चलना । इनकी आज्ञा कभी न टालना और जो कुछ मुसे अपराध बन पड़ा हो, उसे क्षमा करना ।" इसके बाद राजाने सब लोगोंकी रायसे गुरुके पास जाकर दीक्षा-व्रत ग्रहण कर लिया ।
राज्यलक्ष्मी और पुत्र कलत्र आदि परिग्रहोंको त्यागकर राजा नरवाहन अत्यन्त शोभित होने लगे । जलका त्याग कर देनेवाले मेघकी तरह वे मुनीश्वर पञ्चमहाव्रत धारी, शान्त, दान्त, जितेन्द्रिय, विशुद्ध धर्माशय-युक्त, सद्धर्ममें श्रद्धावान्, ध्यानमें तत्पर बाईसों परिषहोंको जीतनेवाले, अल्पकालमें आगमके अभ्यासी और गुणों में गरिष्ठ हो गये । उनको ऐसा गुण-गरिष्ठ जानकर