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* प्रथम सर्ग:
अनुचित काम किया; पर तुम्हारा भाग्य बड़ा बली है, इसीलिये उस पापीको अपनी करनोका फल हाथों-हाथ मिल गया। इस लिये हे पुत्र ! अब तुम कभी किसी ओछेकी सङ्गतिमें न पड़ना। अब सुनो, तुमने अपने गुणोंसे मेरा आधा राज्य तो पाही लिया है, बाकीका आधा भी मैं तुम्हें दिये देता हूँ-उसे ग्रहण करो।" यह कह कुमारकी इच्छा न होनेपर भी उन्होंने उनको गद्दीपर बिठाकर उनका अभिषेक किया और आप तपस्या करने वनमें चले गये। कुमार उस राज्यको पाकर अत्यन्त शोभित हुए। वे पिताकी तरह प्रजाको सुखी करने लगे। क्योंकि प्राणियोंका पुण्य सर्वत्र जाग्रत रहता है। कहा भी है, कि :
"पुण्यादवाप्यते राज्य, पुण्यादवाप्यते जयः ।
पुण्यादवाप्यते लक्ष्मीर्यतो धर्मस्ततो जयः ॥" अर्थात्-“पुण्यसे राज्य, जय और लक्ष्मी प्रप्त होती है, क्योंकि जहाँ धर्म रहता है, वहाँ सदा जय होती है।”
ललिताङ्गकी जो सदा जय होतो गयी, उसका मूल कारण यही था कि उनके पुण्य बहुत थे। ___अब ललिताङ्ग कुमार उस राज्यका भार एक सुपरीक्षित मन्त्री के हाथमें सौंपकर अपनी स्त्री-पुष्पावती और बहुतसे लोगोंके साथ अपने पितासे मिलनेके लिये श्रीवासनगरकी ओर चले, क्योंकि उनके पिताने उन्हें तुरत ही बुलाया था। वहाँ पहुँच, महलमें बैठे हुए राजाके पास जा, आँखोंके आँसुओंसे पिताके : हृदयकी जलन मिटाते हुए कुमारने उनके चरणोंमें सिर झुकाये