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मरणकण्डिका - ४७
अर्थ - श्रुत एवं श्रुत्वानों को विनय, काल, अवग्रह, बहुमान, अनिव, व्यंजन शुद्धि, अर्थ शुद्धि और उभय शुद्धि ये आठ प्रकार की ज्ञान विनय हैं।।११५ ।।
प्रश्न - इन विनय एवं काल आदि के क्या लक्षण हैं? उत्तर - ५. विनय-श्रुत एवं श्रुतधारीजनों की भक्ति, आदर एवं उनके माहात्म्य का स्तवन करना। २. कालशुद्धि-सन्ध्या, पर्व, दिग्दाह, उल्कापात आदि असमय में स्वाध्याय नहीं करना काल विनय है।
३, अवग्रह - ‘जब तक आगम का यह अनुयोग अथवा यह शास्त्र पूर्ण नहीं होगा, तब तक मैं अमुक वस्तु नहीं खाऊँगा।' इत्यादि रूप से नियम लेकर स्वाध्याय करना।
४. बहुमान - बहुमान का अर्थ सम्मान है। अर्थात् पवित्रता पूर्वक, दोनों हाथ जोड़ कर सादर नमस्कार पूर्वक, मन को निश्चल करके, ग्रन्थराज को लाते-ले जाते समय या विराजमान करते समय नाभि के ऊपर ही रखना, ग्रन्थ टोने हाथ मे राना एवं प्राय पनोरोग पूर्वक पढ़ना यह सब बहुमान विनय है।
५. अनिलव - गुरु का या ग्रन्थ का नाम नहीं छिपाना ।
६. व्यंजन शुद्धि - श्रुतज्ञान की मूल जड़ ककारादि व्यंजन अर्थात् शब्द हैं, क्योंकि शब्द ही द्रव्यश्रुत हैं, दूसरों को ज्ञान कराने में हेतु हैं, अर्थशुद्धि के आधार हैं तथा इस शब्द श्रुत से ही वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है अत: ककारादि व्यंजनों का शुद्ध उच्चारण करना व्यंजन शुद्धि है।
७. अर्थ शुद्धि - जिस शब्द का जो अर्थ है उसे वहाँ वैसे ही प्रकरण आदि के अनुसार लगाना अर्थात् शब्दों के अर्थ का अविपरीत निरूपण करना अर्ध शुद्धि है।
८. उभय शुद्धि - व्यंजन और अर्थ की शुद्धि को तदुभय शुद्धि कहते हैं, अत: व्यंजन शुद्धि तथा अर्थ शुद्धि पूर्वक ग्रन्थ पढ़ना उभयशुद्धि है।
ज्ञानाभ्यास का यह आठ प्रकार का परिकर आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने में सहयोगी है अत: इन शुद्धियों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
चारित्र विनय कुर्वतः समितीर्गुप्ती:, प्रणिधानस्य वर्जनम् ।
चारित्र-विनयः साधोर्जायते सिद्धिसाधकः ।।११६ ।। अर्थ - समिति एवं गुप्तियों का पालन तथा प्रणिधान का परित्याग, यह चारित्र विनय है। यह चारित्र विनय साधुओं की सिद्धि का मूल साधक है।।११६॥
प्रणिधान के भेद और उनके लक्षण प्रणिधानं द्विधा प्रोक्तमिन्द्रियानिन्द्रियाश्रयम्। शब्दादि-विषयं पूर्व, परं मानादि-गोचरम् ॥११७॥