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मरणकण्डिका - ४२०
माया कषाय पर विजय प्राप्त करने का उपाय दोषो निगुह्यमानोऽपि, स्पष्टतां याति कालतः।
निक्षिप्तं हि जले वर्चा, न चिरं व्यवतिष्ठते ।।१५०७ ॥ अर्थ - जैसे जल में डाला गया मल अधिक समय तक नीचे नहीं ठहरता, ऊपर आ ही जाता है, वैसे भली प्रकार अर्थात् सतर्कता पूर्वक भी छिपाये गये दोष समय पर प्रगट हो ही जाते हैं अत: मायाचार करने से क्या लाभ ? ||१५०७ ॥
प्रकटोऽपि जनैर्दोषः, सभाग्यस्य न गृह्यते ।
समलं मलिनं केन, गृह्यते सारसं जलम् ॥१५०८ ।। अर्थ - जैसे तालाब का जल मैला हो तो भी लोग उसे मैला नहीं मानते, वैसे ही भाग्यशाली जीवों का दोष प्रगट भी हो जाये तो भी लोगों द्वारा वह दोष ग्रहण नहीं किया जाता है॥१५०८।।
प्रश्न - इस श्लोक का तात्पर्यार्थ क्या है ?
उत्तर - इसका तात्पर्य अर्थ यह है कि दोषों का प्रगट होना और न होना पुण्य-पाप के आधीन है। दोष प्रगट हो जाने पर भी लोग पुण्यवान को हीन नहीं मानते और भाग्यहीन का छिपाया हुआ भी दोष उसके तिरस्कार का कारण बन जाता है।
मान्यता या प्रतिष्ठा विनाश के भय से ही मनुष्य दोषों को छिपाते हैं, किन्तु पुण्यवान जीव के दोष प्रगट हो जाने पर भी जगत् में उसकी मान्यता यथावत् बनी रहती है अतः भाग्यशाली पुरुष को मायाचार करने से कोई लाभ नहीं होता। इसी प्रकार भाग्यहीन को भी मायाचार करने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि छिपाये जाने पर भी उसके दोष छिपे नहीं रह पाते। पापोदय के कारण वे दोष उसका तिरस्कार एवं मान्यता या प्रतिष्ठा की हानि कराते ही हैं, अतः किसी को भी मायाचार नहीं करना चाहिए।
नीचेन छाधमानोऽपि, स्पष्टतामेति निर्मलः।
राहुणा पिहित शन्द्रो, भूय: किं न प्रकाशते॥१५०९ ।। अर्थ - भाग्यहीन पुरुष द्वारा प्रयत्नपूर्वक भी छिपाया हुआ दोष प्रगट हो जाता है, सो ठीक ही है, राहु द्वारा चन्द्रमा का ग्रसित होना क्या प्रगट नहीं होता ? अपितु होता ही है ।।१५०९।।
दम्भेऽर्थः क्रियमाणेऽपि, विपुण्यस्य न जायते।
आयाति स्वयमेवासी, सुकृते विहिते सति ॥१५१० ।। अर्थ - व्यापारादि में अत्यधिक छल-कपट करने पर भी भाग्यहीन व्यक्ति को धन प्रास नहीं होता और पुण्य करने पर वहीं धन अपने आप अवश्यमेव आ जाता है, अत: मायाचार पूर्वक धन कमाने की चेष्टा करना व्यर्थ है।॥१५१०।।
वितरति विपुला निकृति-धरित्री, बहुविधमसुखं दुरित-सवित्री। इयमिति निहता विपुल-मनस्कै, ऋजुगुण-पविना विमल-यशस्कैः ।।१५११ ।।
इति माया-निर्जयः।