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मरणकण्डिका - ४४४
अर्थ- सनत्कुमार मुनि ने सौ वर्षों तक कास, शोष, अरुचि, वमन एवं खुजली आदि की वेदनाएँ धैर्यपूर्वक सहन की थीं ॥ १६२२ ॥
* सनत्कुमार मुनि की कथा
भारतवर्षके अन्तर्गत वीतशोक नगरमें राजा अनन्तवीर्य रानी सीताके साथ कालयापन करते थे। उनके सनत्कुमार नामका अत्यन्त रूपवान् पुत्र उत्पन्न हुआ जो महापुण्योदयसे चक्रवर्ती की विभूति को प्राप्तकर नवनिधि और १४ रत्नों का स्वामी हुआ । एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में उनके रूप की प्रशंसा कर रहा था, जिसे सुनकर मणिमाल और रत्नचूल नामके दो देव गुप्त भेषमें आये और स्नान करते हुए चक्रवर्ती का त्रिभुवनप्रिय सर्व सुन्दर रूप देखकर आश्चर्यान्वित हुए। इसके बाद उन देवोंने अपने असली वेषमें आकर वस्त्रालंकारोंसे अलंकृत, सिंहासन पर स्थित चक्रवर्तीके रूपको देखा और खेदित हो उठे । राजाने इसका कारण पूछा, तब देव बोले- महाराज ! यथार्थमें आपका रूप देवोंको भी दुर्लभ है, इसकी तो हमें प्रसन्नता है किन्तु मनुष्य का रूप क्षणक्षयी है यह देखकर हमें खेद हुआ। जो रूप कुछ समय पहले स्नानगृहमें देखा था, वह अब दिखाई नहीं देता। यह बात सभासदोंकी समझमें नहीं आई, तब देवोंने एक पानीसे भरा हुआ घड़ा मंगाया और उसमें से एक बूंद जल निकालकर सभासदोंसे पूछा कि बताओ पहलेसे इस घड़े में कुछ विशेषता दिखाई दी क्या ? यह सब चमत्कार देखकर चक्रवर्तीको वैराग्य हो गया और वे जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके तपश्चरणमें संलग्न हो गये । पूर्व पापोदयसे उनके सारे शरीरमें भयंकर कुष्ठ रोग उत्पन्न हो गया। एक देव उनके धैर्यकी परीक्षा लेनेके लिए वैद्यका वेष धारण करके आया और उपचार करानेका आग्रह करने लगा। तब मुनिराज बोले- भो वैद्य ! मुझे जन्म-मरण का भयंकर रोग दुःख दे रहा है, यदि आप इस रोगकी चिकित्सा कर सकते हो तो करो। महाराज की बात सुनकर वैद्य अत्यन्त लज्जित हुआ और चरणोंमें गिरकर बोला- स्वामिन् ! इस रोग की रामबाण औषधि तो आपके पास ही है। इसप्रकार देव मुनिराजके निर्दोष चारित्र की और शरीरमें निर्मोहपने की प्रशंसा करता हुआ स्वर्ग चला गया और सनत्कुमार मुनिराजने अपने धैर्यसे उस परीषह पर विजय प्राप्त की और अष्ट कर्मोंको नष्टकर मोक्षलक्ष्मीके स्वामी बने ।
गङ्गायां नावि मग्नायां, एणिका तनयो यतिः ।
अमूढ-मानसः स्वार्थं, साधयामास शाश्वतम् ॥ १६२३ ।।
अर्थ- गंगा नदी के मध्य नाव डूबने पर एणिका के पुत्र पणिक मुनिराज निर्मोही होकर आराधनाओं को साधते हुए शाश्वत धाम अर्थात् मोक्ष पधारे ॥ १६२३ ।।
* एणिका पुत्र पणिक मुनि की कथा
पणीश्वर नामक नगरमें राजा प्रजापाल राज्य करते थे। वहाँ एक सागरदत्त सेठ अपनी एणिका नामकी स्त्रीके साथ आनन्दसे रह रहा था। उन दोनोंके एक पणिक नाम का पुत्र था, जो सरल, शान्त और पवित्र हृदय का था। एक दिन पणिक भगवान के समवसरणमें गया। वहाँ उसने गंधकुटीमें स्थित वर्द्धमान स्वामी का दिव्य स्वरूप देखा, जिससे उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। भगवान की स्तुति और पूजन आदि कर चुकने के बाद पणिकने धर्मोपदेश सुना और अपनी आयुके विषयमें प्रश्न भी किया तथा अल्प आयु जानकर वह वहीं दीक्षित