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मरणकण्डिका - ५४२
यह शुक्लध्यान शुक्ललेश्या बालों को ही होता है तथा इसमें उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व और अत्यन्त पवित्र परिणाम होते जाते हैं। यह ध्यान आत्मा के साथ लगे हुए नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म रूपी मल को नष्ट कर देता है अर्थात् आत्मा को शुद्ध कर देता है अतः 'शुक्ल ध्यान' इस सार्थक नाम वाला है "शुचिगुणयोगात् शुक्लं" इति ।।१९६९ ॥
प्रथम शुक्लध्यान का शब्दार्थ एवं स्वामी वितर्को भण्यते तत्र, श्रुतध्यान-विचक्षणैः। अर्थ - व्यञ्जन-योगानां, वीचार: संक्रमो बुधैः ।।१९७० ।। तत्र द्रव्याणि सर्वाणि, ध्यायता पूर्व-वेदिना ।
भेदेन प्रथमं शुक्लं, शान्तमोहेन लभ्यते ॥१९७१॥ __ अर्थ - (प्रथम शुक्लध्यान के नाम में तीन पद हैं, 'पृथक्त्व, वितर्क और वीचार) ध्यान में विचक्षण बुद्धिमान पुरुषों ने अनेकपने को पृथक्त्व, अर्थ एवं श्रुत को वितर्क तथा अर्थों के, व्यञ्जनों के और योगों के परिवर्तन को वीचार कहा है। चौदह पूर्वो के पारगामी मुनिराजों द्वारा जीवादि सभी द्रव्यों को घ्याया जाता है, इन द्रव्यों को ध्याते हुए उपशान्त मोह वाले मुनि के पहला शुक्लध्यान होता हैं।।१९७०-१९७१।।
प्रश्न - इस ध्यान में परिवर्तन कितने प्रकार से होता है और इसके नाम की सार्थकता क्या है?
उत्तर - प्रथम शुक्लध्यान में तीन प्रकार से परिवर्तन होते हैं। विषय परिवर्तन, योग परिवर्तन और वचन अर्थात् वाक्यपरिवर्तन । इन तीनों प्रकार के परिवर्तनों का होना ही वीचार शब्द का अर्थ है।
इस शुक्लध्यान में मुनिराज जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्मादि किसी द्रव्य का या किसी पदार्थ का चिन्तन करते-करते उसे छोड़कर किसी अन्य पदार्थ के चिन्तन में एकाग्र हो जाते हैं। किसी विवक्षित आगम वाक्य का अवलम्बन लेते हैं, पश्चात् उसे छोड़कर किसी अन्य वाक्य का अवलम्बन ले लेते हैं, इसी प्रकार वे मुनिराज तीन योगों में से किसी एक योग से युक्त हो ध्यान करते हैं। पश्चात् उसे छोड़ किसी अन्य योग से युक्त हो जाते हैं। इस प्रकार इस ध्यान में अर्थ, व्यञ्जन और योग इन तीनों का परिवर्तन होता है किन्तु यह परिवर्तन बुद्धिपूर्वक नहीं होता। इस परिवर्तन को ही वीचार कहते हैं।
इस ध्यान में श्रुतज्ञान का, श्रुत में कथित अर्थ का एवं शब्दात्मक द्रव्यश्रुत का अवलम्बन लिया जाता है अतः इस ध्यान को वितर्क युक्त कहा जाता है। इस प्रकार के अनेकपनेप्से, वीचार से एवं वितर्क से इसका 'पृथक्त्व वितर्क वीचार' यह सार्थक नाम रखा गया है।
द्वितीय शुक्लथ्यान का स्वरूप एवं स्वामी ध्यायता पूर्व-दक्षेण, क्षीणमोहेन साधुना।
एकं द्रव्यमभेदेन, द्वितीयं ध्यानमाप्यते ॥१९७२॥ ___अर्थ - (इस ध्यान में अर्थसंक्रमण, योगसंक्रमण एवं शब्दसंक्रमण में से एक भी नहीं होता) इस ध्यान का ध्याता किसी एक योग का आश्रय लेकर किसी विवक्षित एक ही द्रव्य का अभेद रूप से चिन्तन करते हैं।