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मरणकण्डिका - ६१५
अर्थ - यह आराधना गंगा सर्वज्ञ रूपी हिमाचल से उत्पन्न हुई है, पुण्यरूप जल से आपूर्ण है, निर्मल है, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप विशिष्ट नेत्रों को धारण करने वाले गणधर देवों ने इसे अपने मस्तक पर धारण किया है और कर्मरूप अग्नि से सन्तप्त मुनिजन रूपी हाथी जिसमें नित्य अवगाहन करते हैं ऐसी यह आराधना रूपी स्वर्गगंगा आपका मंगल करे ||२७॥
या पुण्याम्बुधि-पूरणी कलि-मल-प्रक्षालनैकोद्यमा। या निर्धूय कलेवराणि विमली-कर्तुं क्षमाराधकान्॥ यामासाद्य मुनीभ-यूथ-पतयो, निर्वान्त्यपङ्कात्मिकाम् ।
सा षोऽन्तर्मल-दाहमाशु निहतादाराधना-स्वर्धनी ॥२८ ।। अर्थ - यह आराधना रूपी नदी पुण्य रूपी समुद्र को पूरित करती है। पाप को धोने में समर्थ है, आराधक मुनिजनों के औदारिक आदि तीन शरीरों को नष्ट करके आत्मा को निर्मल बनाने में सक्षम है और इस आराधना का आश्रय प्राप्त कर मुनि रूप हाथी समुदाय के अधिपति भी अपनी आत्मा को अपंक अर्थात् निर्मल एवं पवित्र कर लेते हैं, ऐसी आराधना रूपो नदी अन्त:स्थित कर्ममल-दाह को नष्ट करे ॥२८॥
या संसार-महाविषापहरणे, सन्मन्त्र-विद्यायते। या कर्मावृतताटवी-प्रदहने, दावानलोर्वीयते ।। या दुर्मोह-तमो-घटा-विघटने, चण्डांशु-रोचीयते।
साव: पाप-मलानि हंतु, रुचिरा, रत्नत्रयाराधना ।।२९॥ अर्थ - जो संसार रूपी तीव्र विष का हरण करने के लिए उत्तम विद्या के सदृश है, कर्म वल्ली रूपी वन को जलाने के लिए दावाग्नि के सदृश है एवं मिथ्या मोहान्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्यकिरण सदृश है, ऐसी यह मनोहर तथा रत्नत्रय स्वरूप आराधना आपके पाप-मलों को नष्ट करे ।।२९ ।।
धर्माराम-महातरोः फलवती, या पुण्य सन्मञ्जरी। मुक्ति-श्री-ललनाभिसारण-पटु-भ्रष्टाक्षरा शम्फली। स्वर्गान-प्रविभासि-सौध-शिखरारोहैकनिःश्रेणिका।
सा व: पातु पवित्र-मूर्तिरमला, रत्नत्रयाराथना ।।३० ।। अर्थ - यह आराधना धर्मरूपी बगीचे के वृहद् वृक्ष की फल-युक्त उत्तम मंजरी है, मुक्तिरूपी सुन्दरी को अभिशरण करने की प्रवृत्ति करने वाली स्पष्ट तथा मधुर वाणी बोलने वाली सखी है और स्वर्ग के अग्रभाग पर सुशोभित मोक्षरूप प्रासाद के उपरिम भाग में आरोहण करने के लिए नसैनी सदृश है, ऐसी पवित्र एवं निर्दोष रत्नत्रय स्वरूप आराधना आपकी रक्षा करे ।।३० ।।
या सदृष्टि-रुचि-प्रभा-स्वर-तनुः, सज्ज्ञान-नेत्रोज्वला । सच्चारित्र-विभूषणा शुचि-तपः,शीलौघ-माल्याम्बरा ॥ मुक्ति-श्रीवर-कामिनी-प्रिय-सखी, पुष्पेषु-विद्वेषिणी। सा धीरेरभिवन्दिता मम हृदिस्तानित्यमाराधना ।।३१॥