________________
मरणकण्डिका - ६१७
मियसिर-णक्खत्ते जदि संधारं गेण्हदि तदा पुष्वफग्गुण-णक्खत्ते मरदि॥५॥ अर्थ - क्षपक यदि मृगशिरा नक्षत्र में संत कह करना है तो पूर्वापार गुलि में उसका मरण होगा॥५॥
अहा-णक्खत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा उत्तर-दिवसे मरदि। जदि ण मरदि तदा तहि पुरोगदे णक्खत्ते मरिस्सदि॥६॥
अर्थ - क्षपक यदि आर्द्रा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो दूसरे दिन मरण होगा। यदि न हुआ तो आगे के नक्षत्र में उसकी मृत्यु होगी अथवा पुनः वहीं आर्द्रा नक्षत्र आने पर मृत्यु होगी।
पुणवसु-णक्खत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा अस्सणि-णक्खत्ते अवरण्हे भरदि॥७॥
अर्थ - क्षपक यदि पुनर्वसु नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो अश्विनी नक्षत्र के उदित रहते अपराह्न बेला में उसका मरण होगा ||७||
पुस्स-णखत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा मियसिर-णक्खत्ते मरदि।।८।। अर्थ - क्षपक यदि पुष्य नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो मृगशिरा नक्षत्र में उसका मरण होगा ।।८।। असलिस-णक्खत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा चित्त-णक्खने मरदि॥९॥ अर्थ - क्षपक यदि आश्लेषा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो चित्रा नक्षत्र में उसका मरण होगा ।।१।।
मघ-णक्खत्ते जदि संधारं गेण्हदि तदा तद्विवसे मरदि। जदि ण मरदि तदा तह्मि पुरोगदे णक्खत्ते मरदि॥१०॥
अर्थ - क्षपक यदि मघा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो उसी दिन उसका मरण होगा। यदि उस दिन मरण नहीं हुआ तब पुनः उसी नक्षत्र के आने पर मरण होगा ॥१०॥
पुन्धफगुणि-णखत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा थणिट्ठा-णक्खते दिवसे मरदि।।११।।
अर्थ - क्षपक यदि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो धनिष्ठा नक्षत्र के उदित रहते दिन में उसका मरण होगा ॥११॥
उत्तरफागुणि-णखत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा मूल-णक्खत्ते पयोसे मरदि॥१२॥
अर्थ - क्षपक यदि उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो मूल नक्षत्र के उदित रहते सायंकाल में उसका मरण होगा ||१२॥
हत्थ-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा भरणि-णक्खते दिवसे मरदि।॥१३॥
अर्थ - क्षपक यदि हस्त नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो भरणी नक्षत्र के उदित रहते दिन में उसका मरण होगा॥१३॥
चित्ता-मक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा मियसिर-णक्खत्ते अद्धरते मरदि ।।१४ ।।
अर्थ - क्षपक यदि चित्रा नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो मृगशिरा नक्षत्र में अर्धरात्रि को मरण होगा॥१४॥