Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Shrutoday Trust Udaipur

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Page 643
________________ मरणकण्डिका - ६१९ उत्तरभद्दपद-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा दिवसे वहमाणे वा पुण-रादि वा मरदि ॥२५॥ अर्थ - क्षपक यदि उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो उसी दिन, दिन में या उसी रात्रि में मरण होगा ॥२५॥ रेवति-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा मघ-णक्खत्ते मरदि॥२६॥ अर्थ - रेवती नक्षत्र में शय्या ग्रहण करने पर मघा नक्षत्र में मरण होगा ॥२६॥ मूल-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा जेट्ठ-णक्नत्ते मरदि॥२७॥ सम्मत्तं णक्खत्त वण्णणं। अर्थ - मूल नक्षत्र में संस्तर धारण करने वाले क्षपक का मरण ज्येष्ठा नक्षत्र में प्रात: होगा ||२७ ।। इस प्रकार नक्षत्र गुण वर्णन पूर्ण हुआ। प्रशस्ति श्रीदेवसेनोऽजनि माथुराणां, गणी यतीनां विहितप्रमोदः। तत्त्वावभासी निहित-प्रदोषः, सरोरुहाणामिव तिग्मरश्मिः॥१॥ अर्थ - देवसेन नामके आचार्य माथुर संघ के यतिजनों के श्रेष्ठ आचार्य थे और सब मुनिजनों को आनन्द प्रदान करने वाले थे। जैसे सूर्य कमलों को विकसित करता है, रात्रि का विनाश करता है और पदार्थों को दिखाता है, वैसे ही वे देवसेन आचार्य स्वयं दोषरहित थे, अन्य मुनिजनों को दोष रहित करते थे और भव्य जीवों को जीवादितत्त्वों का स्वरूप दिखाते थे॥१॥ धृत-जिन-समयोऽजनि महनीयो, गुणमणि जलधेस्तदनुतिर्यः । शम यम निलयोऽमितगतिसूरिः, प्रदलित मदनः पद-नत-सूरिः॥२॥ अर्थ - देवसेनाचार्य के शिष्य जैनमत की प्रभावना करने वाले अमितगति नामके एक आचार्य हुए हैं, जो गुणों के समुद्र थे तथा शम एवं व्रतों के आधार थे और मदन का विनाश करने वाले थे, उन्हें बड़े-बड़े विद्वान् भी नमस्कार करते थे ।।२।। सर्व-शास्त्र जलराशि पारगो, नेमिषेण मुनि-नायकस्ततः।। सोऽजनिष्ट भुवने तमोपहः, शीत-रश्मिरिव यो जनप्रियः॥३।। ___अर्थ - इसके अनन्तर इस माथुर संघ में चन्द्रमा सदृश लोकप्रिय और अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाले नेमिषेण नामक एक आचार्य हुए हैं, जो सर्व शास्त्र-समुद्र के पारगामी थे ।।३।। माधवसेनोऽजनि मुनिनाथो, ध्वंसित-माया-मदन-कदर्थः । तस्य गरिष्ठो गुरुरिव शिष्यस्तत्त्व-विचार-प्रवणमनीषः ।।४।। अर्थ - नेमिषेणाचार्य के शिष्य माधवसेनाचार्य हुए हैं। इन्होंने निन्दनीय माया को और मदन को विनष्ट कर दिया था। ये अपने गुरु के अथवा वृहस्पति के समान चतुर थे और इनकी बुद्धि तत्त्वों के चिन्तन में अत्यन्त प्रवीण थी॥४॥

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