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मरणकण्डिका
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शिष्यस्तस्य मनीषिणोऽमितगतिर्मार्गत्रयालम्बिनीम् । एनां कल्मषमोषिणीं भगवतीमाराधनां स्थेयसीम् ॥ लोकानामुपकारको कृत-सतीं, विध्वस्त-तापांहृदः । पद्मः सत्त्वनिषेवितस्य विमलां, गङ्गां हिमाद्रेरिव ॥ ५ ॥
अर्थ - माधवसेन आचार्य के शिष्य मनीषी अमितगति आचार्य हुए हैं। इन्होंने इस भगवती आराधना की रचना की है। यह भगवती आराधना रत्नत्रय मार्ग का अवलम्बन करने वाली है, पाप का नाश करने वाली है, संसारताप का हरण करने वाली है और गंगा नदी के सदृश है। लोक का उपकार करने वाली जैसे गंगा नदी हिमाद्रि से उत्पन्न हुई है वैसे ही यह भगवती आराधना रूपी गंगा अमितगति आचार्य रूपी हिमाचल से उत्पन्न हुई है ॥५॥
आराधनैषायदकारि पूर्णा- मासैश्चतुर्भिर्नतदस्ति - चित्रम् ।
महोद्यमानां जिनभक्तिकानां, सिध्यन्ति कृत्यानि न कानि सद्यः ॥ ६ ॥
अर्थ - आचार्यश्री के द्वारा यह ग्रन्थ मात्र चार मास में रचा गया है किन्तु इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, क्योंकि महाप्रयत्नशाली जिनभक्त कौन से कार्य सिद्ध नहीं कर सकते हैं ? अपितु सभी कार्य सिद्ध कर लेते हैं ॥ ६ ॥
स्फुटी - कृता पूर्व-जिनागमादियं मया जने यास्यति गौरवं परं ।
प्रकाशितं किं न विशुद्ध बुद्धिना, महार्घतां गच्छति दुग्धतो घृतम् ॥७ ॥
अर्थ - पूर्व जिनागम का अर्थात् शिवकोटि आचार्य रचित भगवती आराधना ग्रन्थ का आधार लेकर मैंने यह ग्रन्थ रचा है। जैसे दूध से निकाला गया घृत मूल्यवान् एवं आदरणीय होता है, वैसे ही पूर्व जिनागम के आधार को लेकर रचा गया मेरा यह ग्रन्थ विद्वज्जनों में आदरणीय होगा ॥ ७ ॥
यावत् तिष्ठति पाण्डुकम्बलशिला, देवाद्रि-मूर्ध्नि- स्थिरा । यावत् सिद्धिथरा त्रिलोक-शिखरे, सिद्धैः समाध्यासिता ॥ तावत् तिष्ठतु भूतले भगवती, विध्वंसयन्ती तमः ।
सा चैषा श्रम - दुःखनोदरपरा, चन्द्रप्रभेवोज्ज्वला ॥ ८ ॥
अर्थ - जब तक मेरु शिखर पर पाण्डुकम्बल शिला स्थित रहे, जब तक सिद्धों से अधिष्ठित सिद्धशिला त्रैलोक्य के शिखर पर बिराजमान रहे तब तक चन्द्रकान्ति के समान उज्ज्वल श्रम-दुख का परिहार करने
वाली एवं अज्ञान अन्धकार को नष्ट करने वाली यह भगवती आराधना इस संसार में स्थिर रहे || ८ ॥
प्रशस्ति पूर्ण ॥
सं. २०५८ वैशाख शुक्ला एकादशी दि. ३-५-२००१, गुरुवार को ग्रन्थलेखन पूर्ण हुआ । 卐卐卐