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मरणकण्डिका- ६९३
अर्थ - यह अपराधना रूपी गंगा नंदी, समस्त आस्रवों को रोकने वाली है, शारीरिक एवं आत्मा में उत्पन्न रागादि मलों को दूर कर गुणज्ञ भव्य जीवों को सुन्दर एवं इष्ट ऐसा सिद्धिपद देती है, सल्लेखना धारक महापुरुषों को देवों द्वारा नमस्करणीय पद देती है तथा चक्रवर्ती आदि के सुख देती है, मुनिजनरूप हंसों द्वारा सेवित ऐसी यह आराधनारूपी गंगा आपको भी प्राप्त हो । १९ ।।
या शीलोज्ज्वल-पुष्प-गन्ध-सुभगा, सद्ध्यान-सत्पल्लवा । भास्वद्दर्शन - सम्भवा वर- तपः, पत्रोच्चयेनाञ्चिता || सम्यग्वृत्त-लसन्महाफलवती, भव्यालि झङ्कारिता । सा वो मानस भूतले प्रसरतादाराधना - वल्लरी ॥ २० ॥
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अर्थ - यह आराधनारूपी उत्तम लता सम्यग्दर्शन रूपी उत्तम बीज से उत्पन्न हुई है, उत्कृष्ट तपरूपी पत्रसमूह से भरी हुई है, धर्मध्यान शुक्लध्यान रूप पल्लवों से युक्त है, शीलरूपी श्वेत, उज्ज्वल एवं सुगन्धित पुष्पों से मनोहर है, भव्यरूपी भ्रमरों की झंकार से व्याप्त है और सम्यक् चारित्ररूपी महाफल देने वाली है। ऐसी यह आराधना रूपी पवित्र बेल आपकी मानस भूमि पर अवश्य फैले ॥ २० ॥
या श्रीमत् श्रुत-शील - नीर- कलिता, निर्वाण-दान- क्षमा । या पुण्याम्बुधितारिणी शुचितया, रङ्ग-तरङ्गाकुला ।।
या निर्धूय कलेवराणि महतः, संस्थापयेत् सत्सुखे ।
सा वो मङ्गल - मातनोतु नितरामाराधना-स्वर्धुनी ॥ २१ ॥
अर्थ - यह आराधनारूपी गंगा श्रुतज्ञान और शीलरूप जल से भरी है, मोक्ष देने में समर्थ है, पुण्यरूपी समुद्र को प्राप्त होती है, पवित्र है, ध्यानरूपी तरंगों से व्याप्त है और सत्पुरुषों के औदारिक आदि शरीरों को नष्ट करके उन्हें मोक्षसुख में स्थापित करती है, ऐसी आराधना रूपी गंगा तुम्हारा मंगल करे ॥ २१ ॥
या मोहासुर-सङ्ग - लब्ध-विजया, सर्वार्थ-सम्पादनी । शूराणामसमाधि - नाशन-धिया, कार्ति - त्रयाणां सताम् ॥ या दुर्वार-महोपसर्ग-मथनी, सिद्धि-प्रियाणां सती । सावः पातु भवाटवीं प्रतिगतानाराधना - त्र्यम्बिका ॥ २२ ॥
अर्थ - यह आराधना रूपी अंबिका देवी, मोहासुर को पराजित कर विजयी हुई है, इसकी भक्ति करने वाले पुरुषों को सर्व इष्ट पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। यह देवी परीषहसहिष्णु शूरवीर मुनियों का दुख दूर कर उन्हें समाधि की प्राप्ति करा देती है और सिद्धिप्रिय मुनिजनों के दुर्वार महोपसर्ग का नाश करने वाली है। ऐसी यह आराधना अम्बिका संसाररूपी वन में भटकते हुए आप लोगों की रक्षा करे ॥ २२ ॥
या शुद्धयष्टक - चारु- मौक्तिक- फलैर्मध्यस्थ-दिनायकः । भास्वद्-बोध-विचित्र - सूत्र - रचितैश्चारित्र - सल्लक्षणैः ॥ श्रीमद्-गुप्ति - समुज्वलैर्विरचिता, दोषोग्र- रोगापहा । सा वस्तिष्ठतु वक्षसीह सुतरामाराधना कण्ठिका ॥ २३ ॥