Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Shrutoday Trust Udaipur

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Page 636
________________ मरणकण्डिका - ६१२ अर्थ - यह आराधना ही उत्कृष्ट धर्म है, यही उत्कृष्ट तप है, जिनेश्वर ने दिव्यध्वनि द्वारा इसका ही कथन किया है और यही आराधना ध्यानप्राप्ति में कारण है॥१४॥ एषैव परमो लाभ, एषैव परमं मतम् । एषैव परमं तत्त्वमेषैव परमा गतिः ॥१५॥ अर्थ - इस आराधना की प्राप्ति ही सर्वोत्कृष्ट लाभ है, यही उत्तम मत है. यही उत्तम तत्त्व है और यही परम गति है ।।१५।। एतस्या दुर्लभं ब्रूहि, त्रिलोके कतमत्सुखम् । अत: शरणमेपैका, भवतान्मे भवे-भवे ।।१६।। अर्थ - जिस किसी भी महापुरुष को इस आराधना की प्राप्ति हुई है उसे कौनसा सुख दुर्लभ है? अत: मुझे भी यह आराधना भव-भव में शरणभूत हो ॥१६॥ या सर्वज्ञ-हिमाचलादपसृता, शील-प्रवाहात्मिका। या सर्वर्द्धि-समर्थितैर्गणधरैराराधिता निर्मला ।। या दुर्वार-भवासुखाहत-नृणां, निर्वापणी स्वधुनी । सा वः पाप-विशोधनाय शुभदा, भूयात्सदाराधना ॥१७ ।। अर्थ - इस आराधना रूपी गंगा की उत्पत्ति सर्वज्ञरूपी हिमाचल से हुई है, यह शीलरूप जलप्रवाह से युक्त है, ऋद्धिधारी गणधर देवों द्वारा मान्य है, निर्मल है और दुर्वार संसार के दुखों से पीड़ित पुरुषों के लिए आनन्ददायक है। ऐसी यह उत्तमोत्तम आराधनारूपी गंगा आप सबके पापरूप मैल की शुद्धि के लिए हो और सदा पुण्यदायक हो ॥१७॥ या सज्ज्ञान-समृद्धि-नाल-कलिता, सम्यक्त्व-सत्कर्णिका। या चारित्र-पलाश-सञ्चय-चिता द्वेधा तपो-भासुरा। या भव्योत्तम-षट्पदैः परिवृता, नैःसंग्यसपद्माकुला। सा वोऽस्याद्भवतापमुज्वल-गुणैसराधना पद्मिनी ॥१८॥ अर्थ - यह आराधना सम्यग्ज्ञान की समृद्धि के लिए नालदण्ड है, सम्यक्त्वरूपी कर्णिका से युक्त है, तेरह प्रकार के पत्र-समूह वाली है, बाह्य और अभ्यन्तर इन दो प्रकार के तप से प्रफुल्लित है, भव्यजीव रूप भ्रमरों से वेष्टित है और निष्परिग्रहता रूपी कमलों से व्याप्त है, ऐसी यह आराधनारूपी पद्मिनी उज्वल गुणों द्वारा आप सब आराधकों का भव-सन्ताप हरण करे ।।१८।। या सर्वानव-रोथिनी कलिमलं, दूरं निरस्याङ्गजं । सैद्धं चारु-पदं नयेद्-गुणवतो, भव्यात्मनो वाञ्छितम् ।। चक्रेशादि-सुखं सुरैरभिनुतं, संयोज्य संन्यस्यतां ॥ सा वः स्यान्मुनि-हंस-सेवित-रसा, देवापगाराधना ।।१९।।

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