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मरणकण्डिका - ५७२
अर्थ - रोग एवं आतंक आदि से पीड़ित और जंघाबल हीन हो जाने से अर्थात् पैरों में चलने की शक्ति न होने से दूसरे संघ में जाने में असमर्थ, जो साधु भक्तत्याग करते हैं उनके निरुद्ध नामक अवीचार भक्त प्रत्याख्यान शेता है।.२०८७।
यावदस्ति बलं वीर्य, स्वयं तावत् प्रवर्तते ।
क्रियमाणोपकारस्तु, तदभावे गणेन सः ॥२०८८ ।। अर्थ - जब तक उस साधु में बल-वीर्य रहता है तब तक वह अपनी आवश्यक आदि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्ति करता है अर्थात् तब तक अपने संघ में रहते हुए भी किसी से परिचर्या नहीं कराता, किन्तु शक्ति क्षीण हो जाने पर अपने संघ के द्वारा परिचर्या कराता हुआ रत्नत्रय में प्रवृत्ति करता है ।।२०८८ ।।
सनिरुद्धमवीचारं स्वगणस्थमितीरितम् ।
अपरः प्रक्रम; सर्व:, पूर्वोक्तोऽत्रापि जायते ॥२०८१ ॥ अर्थ - इस प्रकार अपने ही संघ में रह कर जो समाधिमरण किया जाता है वह निरुद्ध अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण कहलाता है, इसमें भी क्रम एवं विधि वहीं है जो सवीचार भक्तप्रत्याख्यान के प्रकरण में कहो गयी है।।२०८९।।
प्रश्न - निरुद्ध मरण और अदीचार किसे कहते हैं ?
उत्तर - पैरों में चलने की शक्ति न होने से अथवा रोगपीड़ित हो जाने से जो अपने ही संघ में निरुद्ध अर्थात् रुका रहता है, अन्य संघ में नहीं जा सकता उसे निरुद्ध मुनि कहते हैं और ऐसे मुनि के मरण को निरुद्ध मरण कहते हैं। इसमें स्वगण का त्याग कर परगण में जाने की विधि नहीं होती तथा इसमें अनियत विहारादि की विधि नहीं होती अत: इसे अवीचार कहते हैं। ये मुनि स्वगण में रहकर ही आचार्य के चरणमूल में दीक्षा से अद्यावधि पर्यन्त हुए अपराधों की आलोचना कर अपनी निन्दा एवं गर्हा करते हैं, प्रतिक्रमण करते हैं और प्रायश्चित्त लेते हैं। जब तक शक्ति रहती है तब तक दूसरों की सहायता बिना अपने रत्नत्रय रूप निर्मल आचरण में तत्पर रहते हैं, जब स्वयं प्रवृत्ति करने में अत्यन्त असमर्थ हो जाते हैं तब दूसरों से सहायता लेकर रत्नत्रय रूप चारों आराधनाओं का पालन करते हैं।
प्रकाशमप्रकाशं च, स्व-गणस्थमिति द्विधा ।
जन-ज्ञातं मतं पूर्व, जनाज्ञातं परं पुनः॥२०९०॥ अर्थ - अपने गण में स्थित होकर जो निरुद्ध अवीचार भक्तत्याग नामक समाधिमरण किया जाता है वह दो प्रकार का है : प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप । जो जनसमुदाय द्वारा जान लिया जाता है वह प्रकाशरूप है और जो जनता को ज़ात नहीं किया जाता वह अप्रकाशरूप है ।।२०९०॥
द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं, ज्ञात्वा क्षपक-मानसम् । अप्रकाशं मतं हेतावन्यनाऽपि सतीदृशे ॥२०९१ ।।
इति निरुद्ध।