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मरणकण्डिका- ५९२
है । इसमें क्रमशः अधःकरण अर्थात् सातिशय अप्रमत्तगुणस्थान तथा अपूर्वकरण नामक आठवें गुण-स्थान को प्राप्त करता है। (इसे अपूर्वकरण इसलिए कहते हैं कि उसने इस प्रकार के परिणाम नीचे के गुणस्थानों में कभी भी प्राप्त नहीं किये) उसके पश्चात् वह साधु नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त करता है ॥ २१६७ ।। सूक्ष्म - साधारणोद्योत - स्त्यानगृद्धि-त्रयातपान् ।
एकाक्ष - विकलाख्यानां जातिं तिर्यग्यं मुनि ।।२१६८ ॥
स्थावरं नारक द्वन्द्वं षोडश प्रकृतीरिमाः ।
प्लोष प्रथमं तत्र शुक्लध्यान - कृशानुना ।।२१६९ ।।
अर्थ - नौवें गुणस्थान में वह साधु निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, सूक्ष्म, साधारण, उद्योत, आतप, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये चार जातियाँ, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, स्थावर, नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी इन सोलह कर्मप्रकृतियों को पृथकृत्व वितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान रूप अग्रि के द्वारा नष्ट कर देता है ।। २१६८-२१६९ ॥
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कषायान्मध्यमानष्टी, षंढवेदं निकृन्तति ।
स्त्रीवेदं क्रमतः षट्कं, हास्यादीनां ततः परम् ।।२१७० ।।
अर्थ तदनन्तर उसी गुणस्थान में क्रमशः मध्य की आठ कषायों अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया एवं लोभ को तत्पश्चात् नपुंसक वेद को, पश्चात् स्त्रीवेद को, तदनन्तर हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह नोकषायों को नष्ट करता है ।। २१७० ।।
पुंवेदं क्रमतश्च्छित्वा, शुक्लध्यान - महासिना ।
क्रोधं संज्वलनं मानं, मायां संज्वलनाभिधाम् ॥। २१७१ ।।
अर्थ - पुनः उसी नौवें गुणस्थान में शुक्ल ध्यान रूपी तीक्ष्ण तलवार से पुरुषवेद को काट कर क्रमशः संज्वलन क्रोध, मान एवं माया का क्षय करता है । (पश्चात् संज्वलन लोभ को बादरकृष्टि द्वारा कृश करता है) ।। २१७१ ।।
प्रश्न- इस अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में कौन-कौन से कर्मों की कितनी प्रकृतियों का क्षय करता है तथा इन प्रकृतियों के क्षय की संक्षिप्त विधि क्या है ?
उत्तर- इस गुणस्थान में दर्शनावरणकर्म की तीन, मोहनीय की बीस और नामकर्म की तेरह, इस प्रकार कुल छत्तीस प्रकृतियों का क्षय करता है। उनके क्षय का क्रम इस प्रकार है
मध्यवर्ती आठों कषायें अप्रशस्त है अतः इनका पहले क्षपण करना आवश्यक है। इन आठों कषायों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति एवं अनुभाग इन चारों को संज्वलन कषायों में संक्रमित कर इन्हें परमुख से क्षय करता है | पश्चात् अनिवृत्तिकरण के काल में जब संख्यातवाँ भाग शेष रहता है तब निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन को एवं नामकर्म की उपर्युक्त तेरह प्रकृतियों को अपनी-अपनी जाति में संक्रमित कर परमुख से क्षय करता है । पश्चात् स्त्री वेद और नपुंसकवेद के द्रव्य को पुरुष वेद में देकर उन दोनों का क्षय करता है।