Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Shrutoday Trust Udaipur

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Page 627
________________ मरणकण्डिका -६०३ उत्तर - सर्वार्थसिद्धि नामक अन्तिम स्वर्ग विमान के ध्वजदण्ड से बारह योजन ऊपर जाकर आठवीं पृथिवी है। इसका ईषत्प्राग्भार नाम है, इसका मध्य बाहल्य अर्थात् मोटाई आठ योजन प्रमाण है, आगे दोनों ओर क्रमशः हीन होता गया है, जो अन्त में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अतिसूक्ष्म रहकर दोनों छोरों से उपरिम वातवलयों से स्पर्शित है। इस प्रकार यह पृथिवी ऊपर को उठे हुए विशाल और गोल छत्र के आकार को धारण करने वाली तथा चन्द्राभा सदृश उज्ज्वल है। इसका विस्तार अढ़ाईद्वीप के विस्तार प्रमाण अर्थात् पैंतालीस लाख योजन है। इसके ऊपर तीन वातवलय हैं, उन तीनों में प्रथम घनोदधिवातवलय की मोटाई दो कोस, दूसरे घनवातवलय की एक कोस और तीसरे तनुवात्तवलय की मोटाई कुछ (४२५ धनुष) कम एक कोस अर्थात् एक हजार पाँच सौ पिचहत्तर धनुष है। सिद्धशिला, मोक्षशिला एवं सिद्धालय आदि इसके अनेक नाम हैं। इस कुछ कम एक कोस विस्तार वाले तनुवातवलय के मात्र पाँच सौ पच्चीस धनुष मोटे अन्तिम भाग में सिद्ध भगवान् विराजमान हैं अत: कहा गया है कि मोक्षशिला से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर सिद्ध भगवान बिराजते हैं। सिद्ध भगवान् का इससे आगे न जाने का कारण न धर्माभावत: सिद्धा, गच्छन्ति परतस्ततः । धर्मो हि सर्वदा कर्ता, जीव-पुद्गलयोर्गतेः ॥२२१३ ।। अर्थ - लोकान के आगे धर्मद्रव्य का अभाव है अत: सिद्ध प्रभु आगे नहीं जाते, क्योंकि गमन करते जीव और पुद्गल के गमन में धर्मद्रव्य ही सहायक होता है॥२२१३ ।। निष्ठिताशेष-कृत्यानां, गमनागमनादयः । व्यापारा जातु जायन्ते, सिद्धानां न सुखात्मनाम् ।।२२१४॥ अर्थ - सम्पूर्ण कार्यों के कर चुकने के कारण निष्ठितकृत्य एवं अनन्त सुख का अनुभव करने वाले सिद्ध भगवान् के गमनागमन आदि की क्रियाएँ कभी भी नहीं होती हैं ।।२२१४ ।। कर्मभिः क्रियते पातो, जीवानां भव-सागरे । तेषामभावतस्तेषां, पातो जातु न विद्यते ।।२२१५॥ अर्थ - संसार-सागर में कर्मों के निमित्त से ही जीवों का पतन होता है, सिद्ध जीवों के इन कर्मों का अभाव हो चुका है, अत: वे कभी संसार में लौट कर नहीं आते ।।२२१५ ।। क्षुधा-तृष्णादयस्तेषां, न कर्माभावतो यतः। आहारास्तितो नार्थस्तत्प्रतीकार-कारिभिः ॥२२१६ ।। अर्थ - उन सिद्ध जीवों के जिस कारण से कर्मों का अभाव है उसी कारण से उनके भूख, प्यास एवं रोग आदि की वेदनाएँ नहीं होती और उन वेदनाओं के अभाव में वेदना का प्रतिकार करने वाले आहार, जल एवं औषधि आदि से भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता ।।२२१६॥

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