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मरणकण्डिका - ६०९
卐 आराधना-स्तवनम बन्धुः स्वर्गापवर्ग-प्रभव-सुखफल-प्रापणे कर्मवल्ली। नाना-बाधा-विधायि-प्रचित-कलिमल-क्षालने-जझुकन्या ॥ रागद्वेषादि-भावि-व्यसन-घनवनच्छेदने छेदनी या।
सारामाराधनासौ, वितरतु तरसा शाश्वतीं वो विभूतिम् ।।१।। अर्थ - यह आराधना स्वर्ग एवं मोक्ष में उत्पन्न उत्तम सुखरूप फल प्राप्त कराने के लिए बंधुजन सदृश है, अनेक प्रकार की विघ्न बाधाओं को उत्पन्न करने वाले पापरूपी कीचड़ को धोने के लिए गंगा नदी के सदृश है, तथा रागद्वेषादि से उत्पन्न हुए संकट रूप सघन वन को काटने के लिए कुल्हाड़ी सदृश है, ऐसी यह रमणीक आराधना, आप लोगों को शीघ्र ही शाश्वत विभूति प्रदान करे॥१॥
यामासाद्याव-नम्न-त्रिदशपति-शिरो-घृष्ट-पादारविन्दाः । सद्य: कुन्दाषदात-स्थिर-परमयशःशोधिताशेषदिक्काः ।। जायन्ते जन्तवोऽमी जन-जनित-मुदः केवलज्ञान-भाजो।
भूयादाराधना सा भव-भय-मथनी भूयसे श्रेयसे वः॥२॥ अर्थ - जिस आराधना को धारण करके ये संसारी भव्य प्राणी देवों के नम्रीभूत मस्तक द्वारा स्पर्शित हैं चरण-कमल जिनके ऐसे अर्थात् देवों द्वारा वन्दनीय हो जाते हैं, जो कुन्द पुष्प के सदृश उज्ज्वल है, स्थिर है और समस्त दिशाओं को शुद्ध करने वाला है ऐसे परम यश के स्वामी हो जाते हैं, लोगों को आनन्द उत्पन्न करने वाले एवं केवलज्ञान को भी प्राप्त करने वाले हो जाते हैं, ऐसी संसार के भय को नष्ट करने वाली यह आराधना तुम सब के विशाल कल्याण के लिए हो ॥२॥
यामाराध्याशु गन्ता शकलित-विपदः पञ्चकल्याण-लक्ष्मीम्। प्राप्यां पुण्यैरपापां त्रिभुवनपतिभिर्निर्मितां भक्तिमद्भिः ।। सम्यक्त्व-ज्ञान-दृष्टि-प्रमुख-गुणमणि-भ्राजितां यान्ति मुक्तिं।
सा वन्द्या हृद्य-विधैर्विलसतु हृदये सर्वदाराधना वः ।।३।। अर्थ - संसारी भव्य प्राणी जिसकी आराधना करके विपत्तियों को नष्ट कर पंचकल्याणक रूप लक्ष्मी शीघ्रता से प्राप्त कर चुके हैं, भक्तिमान एवं पुण्यशाली ऐसे त्रैलोक्याधिपति देवेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा जो प्राप्त करने योग्य है, श्रेष्ठ विद्याओं से युक्त महापुरुषों द्वारा जो वन्दनीय है और जिसके प्रसाद से भव्य जीव निर्दोष सम्यक्त्व, ज्ञान एवं दर्शन आदि प्रमुख गुण रूपी मणियों से अलंकृत ऐसी मुक्ति को भी प्राप्त कर लेते हैं, वह उत्तमोत्तम आराधना आप लोगों के हृदय में सदा शोभायमान हो ।।३।।
या सौभाग्यं विधत्ते, भवति भव-भिदे भक्तित: सेव्यमाना । या छिन्ते मोह-दैत्यं, भुवन-भवभृतां साध्वसं ध्वंसयन्ती ।। यो चानासाद्य देही, भ्रमति भव-वने भूरि-भाषाद्रिरौद्रे । सा भद्राराधना वो भवतु भगवती वैभवोद्भावनाय ।।४।।