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मरणकण्डिका -६०८
सज्जन इस कल्याणकारी एवं मुक्तिप्रदायिनी आराधना की विवेचना को शुद्ध करके ही ग्रहण करें अर्थात् पढ़ें, पढ़ावें या सुनें, सुनावें। ठीक है, जगत् में चतुर मनुष्य क्या पलाल का त्याग कर उपकारी और पवित्र धान्य ग्रहण नहीं करते ? अपितु करते ही हैं ।।२२३८।।
आराधना देवी का स्तव आराधना भगवती कथिता स्वशक्त्या, चिन्तामणिवितरितुं बुधचिन्तितानि । अह्राय जन्मजलधि तरितुं तरण्डं, भव्यात्मनां गुणवती ददतां समाधिम् ॥२२३९ ।।
अर्थ - इस भगवती आराधना को मैंने अपनी शक्त्यनुसार कहा है। यह आराधना मुनिजनों को चिंतित वस्तु-मोक्ष देने के लिए चिन्तामणि सदृश है और जन्मरूपी समुद्र को शीघ्र ही पार करने के लिए नौका सदृश है। यह गुणवती आराधना भव्य जीवों को समाधि प्रदान करें ।।२२३९ ॥
करोति वशवर्तिनीस्त्रिदश-पूजिता: सम्पदो।' निवेशयति शाश्वते, यतिमते पदे पावने ॥ अनेक भव-सञ्चितं हरति कल्मषं जन्मिनाम् । विदग्ध-मुख-मण्डनी, सपदि सेविताराधना ॥२२४० ।।
मरणकण्डिका समाप्ता। अर्थ - यह आराधना विद्वद्जनों के मुख-मंडन को अलंकार सदृश है, भव्य जीवों द्वारा सेवित है, देवों द्वारा पूजित है, मुक्ति रूपी सम्पदा को वश करने वाली है, शाश्वत एवं पवित्र जैनमत में प्रवेश कराती है और जीवों के अनेक भवों में संचित किये हुए पापों का नाश करती है ।।२२४० ।।
इस प्रकार यह मरणकण्डिका ग्रन्थ पूर्ण हुआ। आचार्य अमितगति विरचित संस्कृत पद्यमय इस ग्रन्थ का प्रश्नोत्तर सहित भाषानुवाद सं. २०५८ वैशाख कृष्णा प्रतिपदा सोमवार दि. ९/४/२००१ को प्रात:काल समाप्त हुआ। मेरे लेखन में यदि सिद्धान्त विरुद्ध कुछ भी स्खलन हुआ हो तो गुरुजन एवं विद्वज्जन संशोधन कर ही ग्रहण करें।
मुमुक्षु भव्य जीवों के आराधना सम्बन्धी अज्ञान अंधकार को दूर करता हुआ यह ग्रन्थ भूमण्डल पर चिरकाल तक स्थायी रहे।
॥ जैन जयति शासनम्॥ ॥ ॐ शान्तिः ।। ।। भद्रं भूयात् ॥
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