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मरणकण्डिका - ६०७
संसारार्णवमुत्तीर्णा, दुःख-नक्र-कुनाकुलम् ।
ये सिद्धिसोधमापनास्त सम्भम सिद्धये ॥२२३४ ।। अर्थ - मानसिक एवं शारीरिक अनेक प्रकार के दुख रूपी मगरमच्छों के समूह से व्याप्त ऐसे संसार रूपी समुद्र को पार कर जो सिद्धि रूपी प्रासाद को प्राप्त कर चुके हैं, वे सिद्ध भगवन्त मुझे सिद्धि प्रदान करें ||२२३४॥
इस प्रकार सिद्ध परमेष्ठियों का वर्णन पूर्ण हुआ।
पण्डितपण्डितमरण के कथन का उपसंहार भवति पण्डित-पण्डित-मृत्युना, सपदि सिद्धि-वधूर्वशवर्तिनी । विमल-सौख्य-विधान-पटीयसी, सुभगतेव गुणेन निरेनसा ।।२२३५ ।।
इति पण्डितपण्डितम्। अर्थ - जैसे निर्दोष गुणों द्वारा सुभगता अर्थात् सर्वजनप्रियता प्राप्त होती है वैसे ही इस परमश्रेष्ठ पण्डित पण्डेित मरण द्वारा विमल सुख उत्पन्न करने में निपुण ऐसी सिद्धि रूपी वधू वशीभूत हो जाती है॥२२३५।। इस प्रकार पण्डित-पण्डित-मरण का वर्णन पूर्ण हुआ।
आराधनाओं का फल आराधना जन्मवतचतुर्धा, निषेव्यमाणा प्रथमे प्रकृष्टा ।
भवे तृतीये विदधाति मध्या, सिद्धिं जघन्या खलु सप्तमे सा ॥२२३६ ॥
अर्थ - जो भव्य जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तपरूप चार आराधनाओं का उत्कृष्ट रूप से सेवन करते हैं, वे उसी भव से मुक्त हो जाते हैं। जो मध्यम रूप से सेवन करते हैं वे तृतीयभव में और जो जघन्य रूप से उक्त आराधनाओं का सेवन करते हैं, वे सातवें भव में मुक्त हो जाते हैं।।२२३६ ।।
ग्रन्थकर्ता आचार्य अमितगति जी आराधनाओं का कथन करने वाले इस ग्रन्थ
को पूर्ण करते हुए ग्रन्थरचना के फल की याचना करते हैं आराधनैषा कथिता समासतो, ददातु सिद्धिं मम मन्दमेधसः ।
अबुध्यमानैरखिलं जिनागम, न शक्यते विस्तरतो हि भाषितुम् ॥२२३७ ।।
अर्थ - सम्पूर्ण जिनागम के ज्ञाता महान् आचार्य भी इन आराधनाओं का सविस्तार वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं तब मुझ जैसे मन्दबुद्धि वाले सविस्तार वर्णन कैसे कर सकते हैं? अतः मेरे द्वारा यह आराधना संक्षेप से कही गई है। यह संक्षेप में किया गया ही मेरा कथन मुझ मन्दबुद्धि को मोक्ष प्रदान करे ।।२२३७ ।।
ग्रन्थकार द्वारा लघुता विज्ञापन विशोध्य सिद्धान्त-विरोधि-बद्धं, ग्राह्या श्रुतज्ञैः शिवकारिणीयम्।
पलालमत्यस्य न किं पवित्रं, गृह्णाति सस्यं जनतोपकारि ॥२२३८ ।। अर्थ - अल्पश्रुतज्ञानी होने के कारण यदि कुछ सिद्धान्तविरुद्ध लिखा गया हो तो उसे आगम-विज्ञ