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मरणकण्डिका ६०५
युगपत्केवलालोको, लोकं भासयतेऽखिलम् । घनावरण - निर्मुक्तः, स्व-गोचरमिवांशुमान् ।। २२२३ ॥
अर्थ- जैसे मेघावरण से रहित सूर्य अपने प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं उन सबको युगपत् प्रकाशित करता है, वैसे ही सिद्ध परमेष्ठी का केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप प्रकाश समस्त लोकालोक को युगपत् जानते देखते हैं । २२२३ ॥
राग-द्वेष-मद- क्रोध-लोभ-मोह विवर्जिताः ।
ते नमस्यास्त्रिलोकस्य, धुन्वते कल्मषं स्मृताः ।। २२२४ ।।
अर्थ - राग, द्वेष, अहंकार, क्रोध, लोभ एवं मोहादि दोषों से रहित वे सिद्ध परमेष्ठी त्रिकालवर्ती महापुरुषों के द्वारा नमस्करणीय हैं एवं जीवों के द्वारा स्मृत होने पर उनके पाप नष्ट करने वाले हैं ।। २२२४ ॥ जन्म - मृत्यु - जरा - रोग-शोकान्तकादि - व्याथयः । विध्याता सकलास्तेषां निर्वाण-शर-वारिभिः ।। २२२५ ।।
अर्थ - उन सिद्ध प्रभु की जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक एवं पीड़ा आदि सर्व व्याधियाँ निर्वाणरूपी बाण की जलधाराओं से शान्त हो चुकी हैं ।। २२२५ ।।
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सिद्धों के सुखों का कथन
शारीरं मानसं सौख्यं विद्यते यज्जगत्त्रये ।
तद्योगाभावतस्तेषां न मनागपि जायते ।। २२२६ ।।
अर्थ तीन लोक में जितना भी शारीरिक एवं मानसिक सुख है, उस सुख का किंचित् अंश भी सिद्ध जीवों को नहीं होता, क्योंकि उनके मनयोग, वचनयोग एवं काययोग का अभाव हो चुका है, अत: उन्हें अनन्त, स्वाभाविक, शाश्वत और आत्मोत्थ सुख ही होता है ।। २२२६ ।।
जानतां पश्यतां तेषां विबाधा रहितात्मनाम् ।
सुखं वर्णयितुं न शक्यते हत कर्मणाम् ।।२२२७ ॥
अर्थ - लोकालोक को जानने-देखने वाले, संसार की सम्पूर्ण बाधाओं से रहित एवं समस्त कर्मों को नष्ट कर देने वाले सिद्ध परमेष्ठियों के शाश्वत सुख का वर्णन कौन कर सकता है? अपितु कोई नहीं कर
सकता ।। २२२७ ॥
भोगिनो मानवा देवा, यत्सुखं भुञ्जतेऽखिलम् । तन्नैषामात्मनीनस्य, सुखस्यांशोऽपि विद्यते ।। २२२८ ॥
अर्थ - भोगभूमिज जीव, मनुष्यों में चक्रवर्ती तथा देवों में देवेन्द्र और अहमिन्द्रादि अखिल इन्द्रियज सुख भोगते हैं वह सुख सिद्धों के आत्मोत्थ-स्वाधीन सुख का अंश मात्र भी नहीं है ॥२२२८ ॥ रूप- गन्ध-रस- स्पर्श-शब्दैर्यत्सेवितैः सुखम् । तदैतदीय- सौख्यस्य, नानन्तांशोऽपि जायते ।। २२२९ ।।