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मरणकण्डिका - ६०४
मिडों के सुरन का प्रमाण यत्सर्वेषां ससौख्याना, भुवनत्रय-वर्तिनाम् ।
ततोऽनन्तगुणं तेषां, सुखमस्त्यविनश्वरम् ।।२२१७ ।। अर्थ - उन सिद्धों को अनन्त और शाश्वत सुख प्राप्त है। उनका यह सुख त्रिकालवर्ती तीनों लोकों के इन्द्र, चक्रवर्ती आदि सभी सुखी जीवों के सम्पूर्ण सुख से अनन्तगुणा है।।२२१७ ।।
सिद्धों का आकार आदि अन्त्य-विग्रह-संस्थान-सदृशाकृतयः स्थिराः।
सुख-दुःख विनिर्मुक्ता, भाविनं कालमासते॥२२१८॥ अर्थ - अन्तिम शरीर के संस्थान के सदृश आकार वाले वे सिद्ध परमेष्ठी उस आकार से विचलित न होने के कारण स्थिर हैं एवं सांसारिक सम्पूर्ण सुख-दुःखों से निर्मुक्त हैं। वे अनन्त स्वरूप भविष्य काल पर्यन्त इसी प्रकार अर्थात् उनके आत्मप्रदेश घनात्मक आकार स्वरूप ही रहेंगे॥२२१८ ॥
तेषां कर्म-व्यपायेन, प्राणाः सन्ति दशापि नो।
न योगाभावतो जातु, विद्यते स्पन्दनादिकम् ॥२२१९ ।। अर्थ - कर्मों का अभाव हो जाने से सिद्ध जीवों के दस प्रकार के प्राण भी नहीं हैं और तीनों योगों का अभाव हो जाने से उनके कभी स्पन्दन अर्थात् हलन-चलन भी नहीं होता ।।२२१९ ।।
न कर्माभावतो भूयो, विद्यते विग्रहग्रहः ।
शरीरं श्रयते जीवः, कर्मणा कलुषी-कृतः॥२२२०॥ अर्थ - कर्मों का अभाव हो जाने से सिद्ध जीव पुनः शरीर ग्रहण नहीं करते, क्योंकि कर्मों से कलुषित जीव ही कर्मकृत शरीर धारण करते हैं। बिना कर्मनिमित्त के शरीर-ग्रहण नहीं होता ||२२२० ।
सिद्धालय में ठहरे रहने का निमित्त अधर्म-वशतः सिद्धास्तत्र तिष्ठन्ति निश्चलाः ।
सर्वदाप्युपकर्तासौ, जीव-पुद्गलयोः स्थितेः ॥२२२१ ।। अर्थ - सिद्ध जीव अधर्म द्रव्य की वशवर्तिता अर्थात् निमित्त से ही सिद्धालय में सदा काल निश्चल अवस्थित रहते हैं, क्योंकि ठहरते हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति का उपकारक अधर्म द्रव्य ही माना गया है अर्थात् जैसे जीव का स्वभाव चैतन्य है, वैसे स्थिति जीव का स्वभाव नहीं है। इसी कारण श्लोक में "अधर्मवशत:" पद दिया गया है ।।२२२१।।
लोक-मूर्धनि तिष्ठन्ति, काल-त्रितय-वर्तिनम् ।
जानाना वीक्षमाणास्ते, द्रव्य-पर्याय-विस्तरम् ॥२२२२ ।। अर्थ - तीनों काल में होने वाले समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों के विस्तार को जानते और देखते हुए वे सिद्ध परमेष्ठी सदाकाल लोक के मस्तक पर अवस्थित रहते हैं ॥२२२२ ।।