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मरपाकण्डिका - ६०२
और पवन आदि के झकोरे से रहित अग्नि की ज्वाला स्वभावतः ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही बन्धनमुक्त जीव ऊर्ध्वगमन ही करता है।।२२०५-२२०६॥
आवेशेनाशुगमिष, सम्पूर्णेन नियोजितः ।
अलाबुरिव निर्लेपो, गत्वा मोक्षेऽवतिष्ठते ॥२२०७ ॥ अर्थ - अथवा जैसे पूर्वके आवेग से नियोजित आशुगामी अर्थात् कुम्हार का चक्र गमन करता है अथवा मिट्टी के लेप से रहित तूम्बी जल के ऊपर आती है, वैसे ही कर्मलेप से रहित जीव स्वभावत: ऊर्ध्वगमन करके मोक्ष में अवस्थित हो जाता है।।२२०७॥
ध्यान-प्रयुक्तो यात्यूर्ध्वमात्मावेगेन पूरितः।
तथा प्रयत्न-मुक्तोऽपि, स्थातुकामो न तिष्ठति ॥२२०८।। अर्थ - जैसे वेग से पूरित होकर दौड़ने वाला पुरुष उहरने की इच्छा करते हुए भी ठहर नहीं पाता, वैसे ही ध्यान प्रयोग के आवेग से पूरित आत्मा प्रयत्न के बिना ही ऊपर की ओर जाता है।।२२०८ ।।
यथानल-शिखा नित्यमूर्ध्वं याति स्वभावतः ।
तथोयं याति जीवोऽपि, कर्म-मुक्तो निसर्गतः ॥२२०९॥ अर्थ - जैसे अग्नि की ज्वाला स्वभावत: ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही कर्मों से मुक्त आत्मा स्वभावतः ऊर्ध्वगमन ही करता है ।।२२०९ ।।
यात्यविग्रहया गत्या, निर्व्याघातः शिवास्पदम्।
एकेन समयेनासौ, न मुक्तोऽन्यत्र तिष्ठति ।।२२१०।। अर्थ - कर्मों का क्षय होते ही वह मुक्त जीव अन्यत्र कहीं नहीं ठहरता, अपितु मोड़े रहित गति से बिना किसी विघ्न बाधा के एक ही समय में मोक्षस्थान में जाकर बिराजमान हो जाता है ।।२२१०।
विच्छिच ध्यान-शस्त्रेण, देह-त्रितय-बन्धनम् ।
सर्व-द्वन्दू विनिर्मुक्तो, लोकाग्रमधिरोहति ॥२२११ ।। अर्थ - इस प्रकार ध्यानरूप तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा औदारिक, तैजस एवं कार्माण शरीरों के बन्धनों को छेद कर सर्वद्वन्द्व अर्थात् सर्व विभाव भावों से रहित होते हुए वे भगवान् लोकान में आरोहण कर जाते हैं।।२२११॥
ईषत्प्राग्भार-संज्ञायां, धरित्र्यामुपरि स्थिताः ।
त्रैलोक्याग्रेऽवतिष्ठन्ति, ते किञ्चिन्यून-योजने ।।२२१२॥ ___ अर्थ - सर्वार्थसिद्धि विमान से ऊपर ईषत्प्राग्भार नाम की एक पृथिवी है, उस पृथिवी से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर वे भगवान् तीन लोक के अग्रभाग पर अवस्थित हो जाते हैं।।२२१२ ।।
प्रश्न - ईषत्प्रारभार पृथिवी का क्या स्वरूप है और इस पृथिवी से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर वे भगवान् अवस्थित हो जाते हैं, ऐसा क्यों कहा गया है ?