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मरणकण्डिका - ५९०
(१२) पंडित-पंडित मरणाधिकार बालपंडितमरण का उपसंहार और पंडित-पंडित मरण के कथन की प्रतिज्ञा
एवं समासतोऽवाचि, मरणं बालपण्डितम् ।
अधुना कथयिष्यामि, मृत्यु पण्डितपण्डितम् ॥२१६१ ।। अर्थ - इस प्रकार संक्षेप से बालपंडितमरण का कथन किया है अब पण्डित-पण्डितमरण का विवेचन करूँगा ||२१६१॥
क्षपक श्रेणी के लिए पुरुषार्थ अप्रमत्तगुणस्थाने, वर्तमानस्तपोधनः ।
आरोदं क्षपकश्रेणी, धर्मध्यानं प्रपद्यते ।।२१६२ ।। अर्थ - अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में वर्तन करने वाले मुनिराज क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने की इच्छा से धर्मध्यान धारण करते हैं ।।२१६२।।
धर्मध्यान का बाह्य परिकर अनुज्ञाते समे देशे, विविक्ते जन्तु-वर्जिते।
ऋज्वायत-वपुर्यष्टिः, कृस्वा पर्यंक-बन्धनम् ।।२१६३ ॥ अर्थ - क्षेत्र के स्वामी से अथवा वहाँ के अधिष्ठाता देव से आज्ञा लेकर तपस्वीजन जीव-जन्तुरहित, एकान्त, रम्य, पवित्र और सम प्रदेश में अपनी शरीर यष्टि को अथवा रीढ़ की हड्डी को एकदम सीधा रख कर पर्यंकासन से ध्यान करते हैं ॥२१६३ ।।
वीरासनादिकं बद्ध्वा, समपादादिकां स्थितिम्।
आश्रित्य या सुधीः शय्यामुत्तान-शयनादिकम् ।।२१६४ ।। __ अर्थ - अथवा वे बुद्धिशाली मुनिजन वीरासनादि आसनों से स्थित होकर या दोनों पैरों को समान कर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होकर या उत्तान अर्थात् सीधे सोकर या एक पार्श्व से लेटकर ध्यान करते हैं।॥२१६४।।
पूर्वोक्त-विधिना ध्याने, शुद्धलेश्य: प्रवर्तते ।
योगी प्रवचनाभिज्ञो, मोहनीय-क्षयोद्यतः ।।२१६५ ।। अर्थ - शास्त्रों के अर्थात् अंग और पूर्वो के ज्ञाता तथा मोहनीय कर्म का क्षय करने में उद्यत वे मुनिराज पूर्वोक्त प्रकार से स्थित एवं शुक्ल लेश्या में संलग्न हो ध्यान करते हैं ।।२१६५॥