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मरणकण्डिका - ५९८
योगनिरोध का क्रम स्थूलौ मनो-वचो-योगी, रुणद्धि स्थूल-कायतः । सूक्ष्मेण काययोगेन, स्थूलयोगं च कायिकम् ॥२१९२ ।। सूक्ष्मौ मनो-वचो-योगी, रुन्द्ध कर्मास्रवैर्जिनः ।
सूक्ष्मेण काययोगेन, सेतुनेव जलास्रवम् ।।२१९३ ।। अर्थ - सर्वप्रथम स्थूल काययोग में स्थित होकर वे केवली जिन बादर अर्थात् स्थूल वचमयोग और स्थूलमनोयोग को रोकते हैं, पश्चात् सूक्ष्म काययोग में स्थित होकर स्थूलकाययोग को रोकते हैं। उसी प्रकार सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचन योग को रोक कर सूक्ष्म काययोग में स्थित होते हैं। उस समय उनके ईयापथ आसव भी रुक जाता है, मात्र सूक्ष्म काययोग से किंचित् कर्म उस प्रकार आता है जिस प्रकार जल को बाँध देने वाले बंधा में किंचित् सा छिद्र रह जाने पर किंचित् जल आता है ।।२१९२२९९३॥
प्रश्न - योग किसे कहते हैं और एक समय में एक जीव के कितने योग होते हैं ?
उत्तर - पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काययुक्त के कर्म और नोकर्म वर्गाओं को ग्रहण करने की शनि लियोष को योग बढ़ो हैं। योग का यह सामान्य लक्षण है। अथवा मन, वचन और काय वर्गणा के निमित्त से आत्मप्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है उसे योग कहते हैं। अथवा जीवप्रदेशों का जो संकोच-विकोच अथवा परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है वह योग है। अथवा मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से आत्मप्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है उसे योग कहते हैं। एक समय में एक जीव के एक ही योग होता है।
प्रश्न - यदि आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन ही तीनों योगों का लक्षण है तो तीनों योग एक साथ एक ही समय में होने चाहिए, एक समय में एक योग नहीं ?
उत्तर - जीव प्रत्येक समय में अनेक कर्मवर्गणाओं को और नोकर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है किन्तु उनमें जिस समय जिस वर्गणा के अवलम्बन से आत्मप्रदेश सकम्प होते हैं उस समय उसी वर्गणा के नाम वाला योग होता है। जैसे यदि मनोवर्गणा के अवलम्बन से कम्पन हुआ है तो उस समय मनोयोग ही होगा। अत: एक जीव के एक समय में एक ही योग होता है।
प्रश्न - योगनिरोध का क्या कार्य है ?
उत्तर - जीव की योगशक्ति को उपर्युक्त प्रक्रिया द्वारा कृश करते-करते नष्ट कर देना, यह योगनिरोध का कार्य है। सयोग केवली गुणस्थान के अन्त समय में यह योगशक्ति पूर्णतः नष्ट हो जाती है। तब वे अयोगकेवली नाम वाले चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाते हैं।
सूक्ष्मकाययोगी के होने वाला आम्रय एवं ध्यान लेश्या-शरीर-योगाभ्यां, सूक्ष्माभ्यां कर्म-बन्धकः । शुक्लं सूक्ष्मक्रियं ध्यानं, कर्तुमारभते जिनः ।।२१९४॥