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मरणकण्डिका- ५९६
अर्थ - कर्मों का नाश कर देने वाले जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि जैसे गीला वस्त्र फैला देने पर वह जितने शीघ्र सूख जाता है, उतने शीघ्र इकट्ठा करके रखा हुआ वस्त्र नहीं सूखता, कर्मों की भी वैसी ही दशा जानना अर्थात् आत्मप्रदेश फैला देने से सम्बद्ध कर्मरज की स्थिति बिना भोगे ही घट जाती है ॥ २१८८ ॥ समुद्घाते कृते स्नेह-स्थिति-हेतुर्विनश्यति ।
क्षीण - स्नेहं ततः शेषमल्पीय: स्थिति जायते ।। २१८९ ।।
अर्थ - वहाँ स्थितिबन्ध का कारण मात्र स्नेहगुण है। समुद्घात करने पर वह स्निग्धता नष्ट हो जाती है, स्नेहगुण क्षीण होते ही तीनों कर्म अल्पस्थिति वाले हो जाते हैं ।। २१८९ ॥
प्रश्न - कर्मों की स्थिति किस प्रकार घटती है ?
उत्तर - समुद्घात द्वारा कर्मस्थिति घटने के दो हेतु दिये गये हैं, एक दृष्टान्त है कि जैसे धोकर निचोड़ा हुआ गीला वस्त्र यदि फैला दिया जाता है तो वह शीघ्र सूख जाता है और निचोड़ कर यदि वैसे का वैसा रख दिया जाता है तो देर से सूखता है। यही स्थिति तीनों अघातिया कर्मों की है ।
दूसरे हेतु में कर्म परमाणुओं के बन्ध का मूल कारण उन परमाणुओं में रहने वाला गुण है। यह अभ्यन्तर कारण है अर्थात् आत्मप्रदेश फैला देने से आत्मा के साथ बँधे हुए तीनों अघातिया के कर्मपरमाणु भी उसी रूप में फैल जाते हैं जिससे उनका स्निग्धगुण क्षीण हो जाता है और कारण क्षीण होते ही कार्यरूप स्थितिबन्ध भी क्षीण हो जाता है।
केवलीसमुद्घात में आत्मप्रदेश फैलने का क्रम दण्डं कपाटकं कृत्वा, प्रतरं लोकपूरणम् ।
चतुर्भिः समयैर्योगी, तावद्भिश्च निवर्तते ॥ २१९० ॥
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अर्थ - सयोगकेवली जिन चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करके क्रमशः
चार ही समयों में उन आत्मप्रदेशों को संकुचित कर लेते हैं ।। २९९० ॥
प्रश्न • सयोगी जिन केवली समुद्रात क्यों और किस प्रक्रिया से करते हैं ?
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उत्तर - आयु की स्थिति अन्तर्मुहूर्त और शेष कर्मों की स्थिति अधिक रहने पर उन्हें आयु के बराबर करने के लिए सयोगी जिन केवली समुद्घात करते हैं।
वे जिनेन्द्र पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन मुद्रा में स्थित होते हैं।
मूल
कायोत्सर्ग आसन स्थित जिनेन्द्र के आत्मप्रदेश समुद्घात के प्रथम समय में दण्डाकार होते हैं, जो शरीर के प्रमाण चौड़े और कुछ कम चौदह राजू प्रमाण लम्बे होकर लोक में ऊपर से नीचे तक फैल जाते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र पद्मासन विराजमान हैं उनके आत्मप्रदेश शरीर से तिगुने चौड़े होकर दण्डाकार फैलते हैं। दूसरे समय में वे आत्मप्रदेश कपाटाकार अर्थात् जैसे किवाड़ बाहल्य अर्थात् मोटाई में कम होकर भी लम्बाई-चौड़ाई में बड़े रहते हैं वैसे ही उन जिनेन्द्र के आत्मप्रदेश मोटाई में कम, लम्बाई कुछ कम चौदह राजू और चौड़ाई दोनों पार्श्वभागों में सात राजू रूप फैलते हैं। विशेष इतना जानना चाहिए कि पूर्वाभिमुख स्थित जिनेन्द्र के
की स्थिति