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मरणकण्डिका - ५१३
पश्चात् पुरुषवेद एवं हास्यादि छह कषायों का द्रव्य क्रोध संज्वलन में क्षेपण कर क्षय करता है। इसी प्रकार क्रोध संज्वलन को मान संज्वलन में. मान के दव्य को माया संज्वलन में तथा माया के द्रव्य को लोभ संज्वलन में संक्रमित कर क्रोध, मान और माया का क्षय करता है। अन्त में बादरकृष्टि के द्वारा लोभ संज्वलन को कृश करके सूक्ष्मलोभ रूप में करता है।
सूक्ष्मलोभ-गुणस्थाने, सूक्ष्मलोभं निशुम्भति।
प्राप्नोति संयमं शुद्धं, तदा तदभिधानकम् ॥२१७२ ।। अर्थ - लोभ की बादरकृष्टि के अनन्तर लोभ की सूक्ष्मकृष्टि का अनुभव करने वाले मुनिराज जब सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थान का आश्रय लेते हैं तब उनको सूक्ष्मसाम्पराय नामक चारित्र की प्राप्ति होती है ॥२१७२॥
क्षीणासु लोभकृष्टिसु, नष्ट-कषायो यदा यतिर्भवति।
एकत्वमवीचारं, सवितर्क ध्यानमश्नुते स तदा ॥२१७३ ।। अर्थ - जब संज्वलनलोभ की सूक्ष्मकृष्टि भी नष्ट हो जाती है तब वे यति एकत्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान को ध्याते हैं ।।२१७३ ।।
तेन ध्यानेन तदा स-यथाख्यातेन शेष-घातीनि ।
भव-कारणानि युगपत्, प्रणिहन्ति मुनीश्वरस्तूर्णम् ।।२१७४ ॥ अर्थ - उस एकत्ववितर्क ध्यान तथा यथाख्यात चारित्र द्वारा वे महामुनीश्वर संसारभ्रमण के कारणभूत शेष घातिया कर्मों को एक साथ अर्थात् युगपत् नष्ट कर देते हैं ।।२१७४ ॥
मोहनीये हते शेषं, घातिकर्म-कदम्बकम् ।
तृणराज इवाशेष-सूचीबन्धे प्रणश्यति ॥२१७५ ।। अर्थ - जैसे ताड़वृक्ष की मस्तक सूची अर्थात् ऊपर का शाखाभार टूट जाने पर पूरा ताड़वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे ही समस्त मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर शेष घातिया कर्मों का समूह भी नष्ट हो जाता है।।२१७५॥
तीन धातिया कर्म नष्ट होने का क्रम सूक्ष्मलोभ-गुणस्थाने, सूक्ष्मलोभं निशुम्भति। स निद्रा-प्रचले क्षीण-मोहस्योपान्तिमे ततः॥२१७६ ।। पञ्चज्ञानावृतीस्तत्र-चतस्रो दर्शनावृतीः ।
पञ्च विघ्नानसौ हन्ति, चरमांशे चतुर्दश ॥२१७७ ॥ अर्थ - सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मलोभ को नष्ट कर वे मुनिराज बारहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। इस गुणस्थान के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों को एवं