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मरणकण्डिका- ५८८
बारह व्रतों के नाम
हिंसामसूनृतं स्तेयं, परनारी-निषेवणम् । विमुञ्चतो महालोभं पञ्चधाणुव्रतं मतम् ॥ २१५३ ।।
अर्थ - हिंसा, झूठ, चोरी, परनारी-सेवन और महालोभ का त्याग करना, अर्थात् हिंसादि पाँच पापों का स्थूलरूप से त्याग करना पाँच अणुव्रत हैं । २१५३ ।।
दिग्देशानर्थदण्डानां त्यागस्त्रेधा गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतमिति प्राज्ञैश्चतुर्भेदमुदाहृतम् ।।२१५४ ।। भोगोपभोग-संख्यानं, सामायिकमखण्डितम् । संविभागोऽतिथीनां च प्रोषधोपोषित - व्रतम् ॥। २१५५ ।।
अर्थ - दिशा अर्थात् दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रतों के त्याग रूप तीन गुणव्रत कहे गये हैं तथा प्राज्ञ पुरुषों के द्वारा सामायिक शिक्षाव्रत, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग संख्यान और अतिथिसंविभाग के भेद से शिक्षाव्रत चार प्रकार के कहे गये हैं ।। २१५४-२१५५ ॥
सहसोपस्थिते मृत्यौ, महारागे दुरुत्तरे।
स्व-बान्धवरनुज्ञाता, याति सल्लेखनामसी ॥ २१५६ ।।
अर्थ- बारह व्रतधारी श्रावक सहसा मरण उपस्थित हो जाने पर या महाभयानक रोग हो जाने पर अपने बन्धुबान्धवों से अनुज्ञा लेकर सल्लेखना धारण करता है || २१५६ ॥
विधrयालोचनां सम्यक्, प्रतिपद्य च संस्तरम् ।
म्रियते यो गृहस्थोऽपि तस्योक्तं बालपण्डितम् ॥ २१५७ ।।
अर्थ- सल्लेखना का इच्छुक वह श्रावक, आचार्य या मुनिराज के समक्ष अपने ग्राह्य व्रतों में लगे हुए दोषों की भली प्रकार आलोचना करता है, फिर चटाई आदि का यथायोग्य संस्तर ग्रहण करता है, इस प्रकार जो गृहस्थ नियमपूर्वक मरण करता है वह बालपंडितमरण कहा जाता है ॥ २१५७ ॥
प्रोक्तो भक्तप्रतिज्ञायाः, प्रक्रमो यः सविस्तरम् ।
अत्रापि स यथायोग्यं द्रष्टव्यः श्रुतपारगैः ॥ २१५८ ।।
अर्थ - श्रुतपारगामी आचार्यों ने भक्तप्रत्याख्यान में जो विधि विस्तारपूर्वक कही है, वही सब विधि यथायोग्य इस बालपण्डितमरण में भी जानना चाहिए ।। २१५८ ।।
बालपण्डितमरण का फल
येन देशयतिना निषेव्यते, बालपण्डित-मृतिर्निराकुला ।
भोग- सौख्य- कमनीयतावधि:, कल्पवासि - विबुधः स जायते ॥ २१५९ ॥
अर्थ - इस प्रकार जो देशव्रती श्रावक आदि निराकुलता पूर्वक इस बालपण्डित मरण को ग्रहण करते