Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Shrutoday Trust Udaipur

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Page 610
________________ मरणकण्डिका - ५८६ भिक्षु रहता था। वह निर्दय, मांसभक्षी तथा कपटी था। राजा जयसेन बौद्ध धर्म पर विश्वास करता था। अतः उसने शिवगुप्तको अपना गुरु बना लिया था। एक दिन यतिवृषभ आचार्य संघसहित उस नगरीके बाह्य उद्यानमें आये। प्रजाजनोंको उनके दर्शनार्थ जाते देखकर राजा भी कौतूहलवश उद्यानमें गया, वहाँपर आचार्यश्री मिष्ट वाणी में कल्याणप्रद उपदेश दे रहे थे; उपदेश तात्त्विक एवं तर्कपूर्ण था, उसे सुनते ही राजा जैनधर्म का श्रद्धालु हो गया। उस दिनसे उसने बुद्धकी उपासना छोड़ दी। इससे बौद्ध भिक्षु शिवगुप्त को बड़ा क्रोध आया। उसने राजाको बहुत समझाया, किंतु वह राजा की जैनधर्म की श्रद्धा को नष्ट नहीं कर सका, तब उसने पृथिवीपुरी नामकी नगरीमें बौद्धधर्मी राजा सुमतिके पास जाकर जयसेन राजाका जैन होनेका समाचार कहा। सुमति राजाने जयसेन के पास पत्र भेजकर उसको पुनः बौद्ध बनने को कहा, किन्तु जयसेन नरेश ने स्वीकार नहीं किया। सुमतिका कोप बढ़ता गया। उसने गुप्त रूपसे जयसेनको मारनेका जाल रचा। उस दुष्टने नौकरोंसे पूछा कि कोई ऐसा वीर है जो जयसेन को मार सकता हो । तब हिमारक नामके एक व्यक्तिने इस कार्यको करना स्वीकार किया। वह दुष्ट हिमारक श्रावस्तीमें आकर कपटसे उन्हीं यतिवृषभ आचार्यके समीप मुनि बन गया | राजा जयसेन प्रतिदिन दर्शनार्थ आया करता था। एक दिन राजा अपने नियमानुसार दर्शनार्थ आया, आचार्यके निकट धर्मचर्चा दि के नगरकाप का जाने लगा कि मुस्विभरी उस दुष्ट हिमारक ने राजा को शस्त्र से मार दिया और स्वयं तत्काल भाग गया। आचार्य इस आकस्मिक घटना को देखकर चिन्तित हो उठे। राजाकी मृत्युसे संघ पर आनेवाली घोर आपत्तिसे बचानेका उन्हें अन्य उपाय नहीं दिखा। अत: उन्होंने सामने की दीवार पर लिख दिया कि “यह अनर्थ किसी ने जैनधर्मके द्वेषसे किया है"। लिखने के तत्काल बाद उन्होंने संन्यास धारण कर वहाँ पर पड़े उसी शस्त्रसे अपना घातकर प्राणत्याग कर दिया। जयसेन राजाके पुत्र वीरसेनको अपने पिताकी मृत्युके समाचार मिले। वह उस स्थानपर आकर देखता है तो राजाके निकट आचार्यको भी दिवंगत हुए देखकर आश्चर्यचकित हुआ। इधर-उधर देखते हुए उसकी नजर दीवार पर पड़ी और पूर्वोक्त पंक्ति पढ़ते ही उसे समझमें आ गया कि यह सब घटना किसप्रकार हुई है। वीरसेनका हृदय आचार्य यतिवृषभकी भक्तिसे भर आया। उसको पहलेसे जैनधर्म पर श्रद्धा थी अब और अधिक दृढ़ हो गयी। इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यने क्षणमात्रमें आराधनापूर्वक समाधिको सिद्ध कर लिया था। शस्त्र-ग्रहणतः स्वार्थः, शकटालेन साधितः। कुतोऽपि हेतुतः क्रुद्ध, नन्दे सति महीपतौ ।।२१४९ ॥ अर्थ - किसी कारण से नन्द राजा के क्रोधित हो जाने पर शकटाल नामक मुनिराज ने शस्त्र घात द्वारा समाधिमरणरूप अपना स्वार्थ सिद्ध किया था ।।२१४९ ॥ * शकटाल मुनि की कथा * पाटलीपुत्र नामकी नगरीमें राजा नंद राज्य करता था। उसके दो मंत्री थे, एक का नाम शकटाल और दूसरेका नाम वररुचि। शकटाल जैन सरल स्वभावी नीतिप्रिय था, इससे विपरीत वररुचि था। दोनोंका आपसमें

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