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मरणकण्डिका -५८५
करते हुए भी मुनियोंको आहारदान तथा जिनपूजा वह अवश्य करता था । किसी दिन दमधर मुनिराजसे धर्मोपदेश सुनकर धर्मसिंह नरेशने जिनदीक्षा ग्रहण की और तपस्या करने लगे। रानी चंद्रश्रीको बहुत दुःख हुआ। भाई चन्द्रभूति बहिनको दुःखी देखकर धर्मसिंह मुनिको जबरन चन्द्रश्रीके पास ले आया किन्तु धर्मसिंह पुनः वनमें गये और तपस्यामें लीन हुए। कुछ दिन इसी प्रकार व्यतीत हुए । चन्द्रभूतिने किसी दिन वनविहार करते हुए उन मुनिको देखा। मुनिराजने भी अपनी तरफ आते हुए उस अपने सालेको देखकर पहिचान लिया। उन्होंने सोचा कि यह मुझे तपस्या से च्युत करेगा। जहाँ मुनि तपस्या कर रहे थे, वहाँ वनमें पासमें एक हाथीका कलेवर पड़ा था, धीरवीर मुनि धर्मसिंह उसी में घुस गये। उन्होंने चार प्रकारके आहारका एवं संपूर्ण कषायभावों का त्यागकर संन्यास ग्रहण किया तथा तत्काल श्वासका निरोधकर प्राण छोड़े। इसतरह उन्होंने क्षणमात्रमें उत्तमार्थको साधा और स्वर्गमें जाकर देवपद पाया। वे महामुनि हम सबके लिए समाधिप्रद होवें।
सुतार्थ पाटलीपुत्रे, मातुलेन कदर्थितः ।
जग्राहर्षभसेनोऽर्थ, वैखानस-मृतिं श्रितः।।२१४७ ।। अर्थ - पाटलीपुत्र नगर में रहने वाले ऋषभसेन सेठ ने दीक्षा ग्रहण करली थी। अपनी पुत्री के दुख के कारण अपने ही मामा अर्थात् श्वसुर द्वारा उपसर्ग किये जाने पर उन मुनिराज ने श्वास का निरोधकर सल्लेखना पूर्वक पण्डितमरण निया शा.२१४५७ !
___*वृषभसेनमुनि की कथा * पाटलीपुत्र नगरीमें वृषभदत्त वृषभदत्ता सेठ सेठानी रहते थे। उनके पुत्रका नाम वृषभसेन था, वह सर्वगुणसम्पन्न, कलाओंमें प्रवीण एवं अत्यंत धर्मात्मा था। उसका विवाह अपने मामाकी पुत्री धनश्रीके साथ हुआ था। किसी एक दिन दमधर नामके मुनिके समीप धर्मोपदेश सुनकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण की, इससे धनश्री रात दिन दुःखी रहने लगी, धनश्रीका दु:ख पिता धनपतिसे देखा नहीं गया। वह मुनि वृषभसेनको उठाकर घर ले लाया और उसे अनेक कपट द्वारा गृहस्थ बना दिया। कुछ दिन बाद अवसर पाकर वृषभसेन पुनः मुनि बन गये। दुष्ट धनपति पुनः हठात् उनको घर पर लाया और क्रोधमें आकर उन्हें साँकलसे बाँध दिया। मुनिने दे कि यह मुझे पुनः विवश कर रहा है, मेरी संयमनिधि लूटेगा। उन्होंने श्वासोच्छ्वास का निरोधकर आराधना पूर्वक संन्यास द्वारा प्राणत्याग किया और स्वर्गमें जाकर वैमानिक महर्द्धिक देवपद प्राप्त किया। इसप्रकार वृषभसेन मुनिराज ने ऐसी विषम स्थिति में भी आत्मकल्याण किया।
नृपे हते हि चोरेण, यति-लिङ्ग-मुपेयुषा।
आचार्य: सङ्घ-शान्त्यर्थ, शस्त्र-ग्रहणतो मृतः ॥२१४८ ॥ अर्थ - मुनिवेषधारी एक चोर ने आचार्य को नमस्कार करते हुए राजा को मार दिया। उस दुर्घटना के निमित्त से संघ पर आने वाली महती आपत्ति को दूर करने के लिए आचार्य ने शस्त्र द्वारा अपना घात कर समाधिमरण कर लिया था ॥२१४८॥
यतिवृषभ आचार्य की कथा श्रावस्ती नगरीका राजा जयसेन था, उसके पुत्रका नाम वीरसेन था। उस नगरीमें शिवगुप्त नामका बौद्ध