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मरणकण्डिका - ५८३
करोत्येनं ततो योगी, कृत-सल्लेखना-विधिः।
उच्चार-प्रस्रवादीनां, ततो नास्ति निराक्रिया ॥२१३८ ।। अर्थ - कषाय के साथ-साथ जिसने अपना शरीर भी उत्तम प्रकार से कृश कर लिया है, अर्थात् जिसका अस्थि-चर्म मात्र शेष रह गया है इस कारण ऐसे योगी को मल-मूत्रादि का निराकरण नहीं होता अर्थात् प्रायोपगमन संन्यास धारण करने वाला योगी मल-मूत्र भी नहीं करता ।।२१३८ ।।
पृथ्वी-वाय्वनिकायादी, निक्षिप्तस्त्यक्त-विग्रहः।
आयुः पालयमानोऽसावुदासीनोऽवतिष्ठते ॥२१३९॥ अर्थ - यदि कोई देव, मनुष्य या पशु आदि उन्हें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति या त्रसादि जीवनिकायों में फेंक देता है या डाल देता है तो शरीर से ममत्व त्याग कर वे अपनी आयु के समाप्त होने तक उसी स्थिति में वहीं पड़े रहते हैं।२१३९॥
गन्ध-प्रसून-धूपाद्यैः, क्रियमाणेऽप्युपग्रहे।
त्यक्त-देह-तयोदास्ते, स स्व-जीवित-पालकः ।।२१४० ।। अर्थ - प्रायोपगमन संन्यासधारी की यदि कोई गन्ध, पुष्प या धूप आदि से पूजा करता है तब भी शरीर से ममत्व त्याग कर देने वाले वे योगिराज उस पूजा-सत्कार से उदास ही रहते हैं अर्थात् जैसे उपसर्ग आदि करने वाले पर कोप नहीं करते वैसे ही पूजक पर प्रसन्न नहीं होते और न उन्हें रोकते ही हैं। दोनों अवस्थाओं में समान रूप से उदासीन रहते हैं ।।२१४० ।।
यत्र निक्षिपते देहं, नि:स्पृहः शान्त मानसः।
ततश्चलयते नासौ, यावज्जीव मनागपि ।।२१४१॥ अर्थ – शरीर से नि:स्पृह और शान्त मन वाले वे योगिराज प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण के समय अपने शरीर को जिस स्थान पर और जिस अवस्था में स्थित करते हैं यावज्जीवन वे वैसे ही स्थित रहते हैं, किंचित् भी हिलते-डुलते नहीं हैं ।।२१४१॥
इत्युक्तं निःप्रतीकारं, प्रायोपगमनं जिनैः।
नियमेनाचलं ज्ञेयमुपसर्गे पुनश्चलम् ॥२१४२ ।। अर्थ - इस प्रकार प्रायोपगमन मरण सर्वधा प्रतीकार रहित होता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। निश्चय से तो यह मरण अचल ही होता है अर्थात् नियम से शरीर की हिलने-डुलने आदि की क्रिया से रहित होता है, किन्तु उपसर्ग अवस्था में मनुष्यादि के द्वारा चलायमान किये जाने पर चल भी होता है अर्थात् इस मरण में स्वयं-कृत शरीर-चंचलता नहीं है, सर्वथा अकम्प, अचल और अडोल ही रहते हैं ॥२१४२ ।।
उपसर्ग-हत: कालमन्यत्र कुरुते यतः। ततो मतं चलं प्राज्ञैरुपसर्गमृते स्थिरम् ॥२१४३ ।।