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मरणकण्डिका -५८१
अर्थ - अन्य साधुओं के सदृश उन क्षपक मुनिराज का न तो स्वाध्याय काल ही नियत होता है और न उन्हें प्रतिलेखना आदि क्रिया करना ही आवश्यक होता है क्योंकि उनके वाचना आदि स्वाध्याय नहीं है। वे श्मशान के मध्य भी सतत ध्यान कर सकते हैं ।।२१२६ ।।
यथोक्तं कुरुते सर्वमावश्यकमतन्द्रितः।
विधत्ते स द्वयं कालं, उपधि-प्रतिलेखनम् ॥२१२७ ॥ अर्थ - दिन रात्रि में सामायिक आदि जो-जो आवश्यक क्रियाएँ करने का विधान है वे सब क्रियाएँ वे अवश्य करते हैं और दोनों सन्ध्याओं में पीछी, कमण्डलु एवं संस्तर आदि का प्रतिलेखन भी करते हैं।।२१२७॥
सहसा स्खलने जाते, मिथ्याकारं करोति सः।
आशी-निषद्यका-शब्दौ, विनिःक्रान्ति-प्रवेशयोः ।।२१२८ ।। अर्थ - आवश्यक क्रियाओं में यदि कभी स्खलित हो जाते हैं या अतिचार आदि लग जाते हैं तो 'मि।। दुक कोष मिथ्या हो पा 'मैंने गलत किया' ऐसे शब्द बोलते हैं, तथा कहीं बन, गुफा या वन्दनादि कार्य के लिए जाते समय और प्रवेश करते समय आसही-निसही शब्दों का उच्चारण भी करते हैं।।२१२८॥
पादयोः कण्टके भग्ने, रजईक्षणयोर्गते।
तूष्णीमास्ते स्वयं धीरो, परेणोद्धरणेऽपि सः ॥२१२९ ।। अर्थ - इन मुनिराज के पैरों में यदि काँटा लग जाता है या आँख में धूल आदि चली जाती है तो मौन रहते हैं, स्वयं भी उसे दूर नहीं करते, यदि कोई अन्य उसे दूर करता है तब भी वे मौन ही रहते हैं ।।२१२९॥
नाना-विधासु जातासु, लब्धिष्वेष महामनाः ।
न किञ्चित्सेवते जातु, विरागी-भूत-मानसः॥२१३०॥ अर्थ - नाना प्रकार के कठोर तपश्चरण से यदि उन्हें विक्रिया, आहारक, क्षीरास्रव या चारण आदि ऋद्धियों की उपलब्धि हो जाती है तो विरागयुक्त मानस वाले वे महामनरा कभी भी उन ऋद्धियों का किञ्चित् भी सेवन नहीं करते ।।२१३०।।
वेदनानां प्रतीकारं, क्षुदादीनां च धीर-धीः।
न जातु कुरुते किञ्चिन्मौनव्रतमवस्थितः ॥२१३१॥ अर्थ - वे धीर बुद्धिधारी मुनिराज मौनव्रत का पालन करते हुए ही अवस्थित रहते हैं। रोगादि से होने वाली वेदना का एवं भूख, प्यास, गर्मी एवं सर्दी आदि का कभी कदाचित् भी प्रतिकार नहीं करते, धैर्यपूर्वक सहन करते हैं ॥२१३१॥
उपदेशोऽन्य-सूरीणामिङ्गिनी-मरणेऽपि सः। त्रिदशैर्मानुषैः पृष्टो, विधत्ते धर्मदेशनाम् ।।२१३२।।