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मरणकण्डिका -५८०
सुखाय यदि लभ्यन्ते, सर्वे पुदगल-सञ्चयाः।
तथापि धीरधी सौ, ध्यानतश्चलति स्फुटम् ॥२१२०॥ अर्थ - यदि लोक का समस्त संचित पुद्गल सुख देने रूप परिणत होकर उन्हें सुखी करना चाहे तो भी धीर बुद्धिवाले वे मुनिराज अपने ध्यान से चलायमान नहीं होते ।।२१२० ।।
उपेक्षते विनिक्षिप्तः, सचित्त-हरितादिषु ।
उपसर्ग-शमे भूयो, योग्यं स्थानमियर्ति सः ।।२१२१ ।। अर्थ - किसी क्रूर व्याघ्र आदि के द्वारा हरित-सचित्त तृणों से व्याप्त प्रदेश में डाल दिये जाने पर भी वे मुनिराज उपसर्ग सहन करते हुए शान्त चित्त से वहीं स्थित रहते हैं। यदि उपसर्ग दूर हो जाता है तो सावधानीपूर्वक तृणरहित भूमि प्रदेश में आ जाते हैं ।।२१२१॥
परीषहोपसर्गाणामेवं विषहनोद्यतः।
मनो-वाक्काय-गुप्तोऽसौ, निःकषायो जितेन्द्रियः ।।२१२२॥ अर्थ - वे मुनिराज परीषह एवं उपसर्गों को सहन करने में सदा उद्यमशील रहते हैं, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति का पालन करते हैं, कषायभाव से रहित होते हैं और जितेन्द्रिय होते हैं ।।२१२२ ।।
इहामुत्र सुखे दुःखे, जीविते मरणे सुधीः।
सर्वथा निःप्रतीकारश्वतरडे प्रवर्तते ॥२१२३॥ अर्थ - चार आराधनाओं में ही प्रवर्तन करने वाले वे बुद्धिशाली क्षपक मुनिराज इसलोक-परलोक में, सुख-दुख में तथा जीवन और मरण में सर्वथा राग-द्वेष रहित होते हैं ।।२१२३ ।।
वाचना-पृच्छनाम्नाय-धर्म देशन-वर्जिताः।
धीरः सूत्रार्थयोः सम्यग्ध्यायत्येकाग्रमानसः ॥२१२४॥ अर्थ - स्वाध्याय के पाँच भेदों में से वाचना, पृच्छना, आम्नाय एवं धर्मोपदेश का त्याग कर वे धीरवीर मुनिराज सतत एकाग्र मन से सूत्र और उनके अर्थ का भली प्रकार मात्र चिन्तन करते हैं अर्थात् सतत अनुप्रेक्षारूप स्वाध्याय में ही संलग्न रहते हैं॥२१२४ ।।
एवमष्टसु यामेसु, निर्निद्रो ध्यान-लालसः।
भवन्तीं हठतो निद्रां, न निषेत्यत्यसौ पराम् ॥२१२५ ॥ अर्थ - इस प्रकार ध्यान के इच्छुक वे मुनिराज दिन-रात्रि के आठों पहर निद्रारहित रहते हैं। यदि कभी बलात् निद्रा आ जाती है तो भी नहीं सोते अथवा कदाचित् अल्प निद्रा ले लेते हैं, बहुत अधिक नहीं सोते॥२१२५॥
स्वाध्याय-काले विक्षेपाद्यन्तास्तस्य न च क्रियाः । ध्यानं श्मशान-मध्येऽपि, कुर्वाणस्य निरन्तरम् ॥२१२६ ।।