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मरणकण्डिका - ५८२
अर्थ - किन्हीं अन्य आचार्यों का मत है कि इंगिनीमरण में संलग्न क्षपक देवों एवं मनुष्यों द्वारा पूछे जाने पर धर्मोपदेश देते हैं ।।२१३२॥
इङ्गिनी-मरणेऽप्येवमाराध्याराधनां बुधाः ।
केचिसिध्यन्ति केचिच्च, सन्ति वैमानिकाः सुराः॥२१३३ ।। अर्थ - इस प्रकार उपर्युक्त विधिपूर्वक इंगिनी नामक समाधिमरण में चार आराधनाओं की आराधना करने वाले बुद्धिशाली क्षपक मुनियों में अपने-अपने परिणामों के अनुसार कोई तो सिद्धगति प्राप्त कर लेते हैं और कोई वैमानिक देव हो जाते हैं ।।२१३३ ।।
इङ्गिनी-मृतिं सुखानुषङ्गिणी, निर्मलां कषाय-नाश-कौशलाम्। पूजिता भजन्ति विघ्न-वर्जितां, ये नरा भवन्ति तेऽजरामराः ॥२१३४॥
इति इङ्गिनी-मरणम्। अर्थ - यह इंगिनीमरण स्वर्ग एवं अपवर्ग के सुखों को देने वाला है, निर्मल है एवं कषायों को नष्ट करने में कुशल है। जो योगिराज इस मरण को स्वयं विन्धरहित पूजते हैं, अर्थात् धारण करते हैं वे अजर-अमर अर्थात् मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं ।।२१३४।।
इस प्रकार इंगिनीमरण का वर्णन सम्पूर्ण हुआ॥ इंगिनीमरण के उपसंहार की एवं प्रायोपगमन मरण के विवेचन की प्रतिज्ञा
इङ्गिनीमरणं प्रोक्तं, समास-व्यास-योगतः ।
प्रायोपगमनं वक्ष्ये, व्यासेन विधिनाधुना ।।२१३५॥ अर्थ - इस इंगिनीमरण का संक्षेप एवं विस्तार से विधिपूर्वक कथन किया । अब आगे प्रायोपगमनमरण की विधि का संक्षेप से कथन करूंगा।।२१३५ ।।
दोनों मरणों की विधि सामान्यत: समान है इङ्गिनीमरणेऽवाचि, प्रक्रमो यो विशेषतः।
प्रायोपगमनेऽप्येष, द्रष्टव्यः श्रुत-पारगैः ।।२१३६ ।। अर्थ - श्रूत के पारगामी गणधरादि देवों ने इंगिनीमरण की जो विधि कही है विशेष रूप से वहीं विधि प्रायोपगमन मरण की देखी है अर्थात् कही है ।।२१३६।।
संस्तरः क्रियते नात्र, तृण-काष्ठादि-निर्मितः।
स्वकीयमन्यदीयं च, वैयावृत्त्यं न विद्यते ॥२१३७ ।। अर्थ - इस मरण में तृणशय्या एवं काष्ठादि की शय्या का निषेध है, क्योंकि इसमें स्वयं अपने से और दूसरों से भी सभी प्रकार की वैयावृत्य करने और कराने का निषेध है ।।२१३७ ।।