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मरणकण्डिका - ५७९
इंगिनीमरण करने वाले क्षपक की क्रियाविधि एवं धैर्य आदि का विवेचन
निषद्योत्थाय निःशेषामात्मनः कुरुते क्रियाम्।
विहरन्नुपसर्गेऽसौ, प्रसाराकुचनादिकम् ॥२११४ ।। अर्थ - इंगिनीमरण ग्रहण करने वाले महामुनि उपसर्ग रहित अवस्था में अपनी उठने-बैठने आदि की सर्व क्रियाविधि एवं शरीर को फैलाने सधा सिमोड़ने आदि की सर्व प्रवियः सायं करते हैं ।। ११४ ।।
स्वयमेवात्मनः सर्व, प्रतिकर्म करोति सः।
आकांक्षति महासत्त्वः, परतोऽनुग्रहं न हि॥२११५ ।। ____ अर्थ - वे महाधैर्यशाली मनोबलयुक्त मुनिराज प्रतिष्ठापना समिति पूर्वक शौचादि क्रियाएँ एवं खड़े होना, गमन करना तथा हाथ-पैर आदि सहलाने की क्रियाएँ स्वयं करते हैं। पर की सेवा, सहायता और अनुग्रह कदाचित् भी नहीं चाहते ॥२११५ ॥
देव-मानव-तिर्यग्भ्यः, सम्पन्नमति-दारुणम्।
उपसर्ग महासत्त्वः, सहतेऽसौ निराकुलः ।।२११६॥ अर्थ - वे महाधैर्यशाली अर्थात् उत्तम संहननधारी सम्पन्नमति मुनिराज देवकृत या मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत दारुण उपसर्ग आ जाने पर उसका प्रतिकार नहीं करते अपितु उसे निराकुल भाव से सहन कर लेते हैं ।।२११६ ।।
दुःशील-भूत-वेताल-शाकिनी-ग्रह-राक्षसैः ।
न सम्भीषयितुं शक्यो, भीमैरपि कथञ्चन ॥२११७॥ अर्थ - जिनका दर्शन एवं विक्रिया अत्यन्त भयंकर है और जो खोटे स्वभाव वाले हैं ऐसे भूत, वेताल, शाकिनी, ग्रह एवं राक्षसों के द्वारा भी वे भयभीत अथवा विचलित नहीं किये जाते हैं ।।२११७ ।।
त्रिदशैर्विक्रियावद्भिश्वेतशोरणकारिणीम् ।
प्रदर्श्य महतीमृद्धि, लोभ्यमानो न लुभ्यति ॥२११८ ।। अर्थ - चित्त को नाना प्रकार से आकर्षित करने वाली अतुल ऋद्धिरूप विक्रिया दिखाकर अनेक देव एवं देवांगनाएँ उन्हें लुभाना चाहें तो भी वे मुनिराज उनके लोभ में नहीं आते अर्थात् संयम से च्युत नहीं होते ॥२११८॥
सम्पद्यतेऽखिलास्तस्य, दुःखाय यदि पुद्गलाः।
तथापि जायते जातु, ध्यान-विघ्नो न धीमतः ॥२११९ ।। अर्थ - यदि तीन लोकवर्ती समस्त पुद्गल द्रव्य दुख देने रूप परिणत होकर उन्हें दुख देना चाहें तो भी वे उन बुद्धिशाली महामुनिराज के ध्यान में विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते ।।२११९ ।।