Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Shrutoday Trust Udaipur

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Page 602
________________ मरणकण्डिका - ५७८ विधायालोचनामग्रे, जिनादीनामदूषणम् । दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपसां कृत-शोधनः ।।२१११॥ अर्थ - इंगिनीमरण के और कर्मों को नष्ट करने के इच्छुक वे महा-मुनिराज अपने भावों की शुद्धि करते हुए एवं पीतादि शुभ लेश्या रूप विशुद्धि को वृद्धिंगत करते हुए दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर रखते हैं और जिनेन्द्रदेव को साक्षी करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तपमें लगे हुए अतिचारों की निर्दोष आलोचना करके अपने दोषों का शोधन करते हैं ॥२११०-२१११।। यावज्जीवं त्रिधाहारं, प्रत्याख्याय चतुर्विधम्। बाह्यमाभ्यन्तरं ग्रन्थमपाकृत्य विशेषतः ।।२११२ ।। अर्थ - वे मुनिराज मन, वचन और काय से जीवन पर्यन्त के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग करके समस्त बाय एवं अभ्यन्तर परिग्रह को भी विशेषरूप से त्याग देते हैं।।२११२।। परीषहोपसर्गाणां, कुर्वाणो निर्जयं परम्। गाहमानः परां शुद्धिं, धर्मध्यान-परायणः ॥२११३॥ अर्थ - धैर्य रूपी धन के धनी वे क्षपक मुनिराज परीषह और उपसर्गों पर उत्कृष्ट रूप से विजय प्राप्त करते हुए एवं परम विशुद्धि रूप भावों में अवगाहन करते हुए उत्तम धर्मध्यान में संलग्न रहते हैं ।।२११३ ॥ प्रश्न - श्लोक २१०३ में कहा गया था कि 'भक्तप्रतिज्ञामरण में आराधना की जो विधि कही गई है वह इंगिनी मरण में भी जानना' उपर्युक्त कथित श्लोक २१०४ से २११३ पर्यन्त अर्थात् ग्यारह श्लोकों में भक्तप्रतिज्ञा की विधि कैसे घटित होती है ? उत्तर - वर्तमान काल में भक्तप्रत्याख्यानमरण सम्भव है और प्रशस्त भी है। इस मरण का सविस्तार विवेचन करने हेतु आचार्यदेव ने इसे चालीस अधिकारों में विभाजित किया है। यथा- 'अर्ह, लिंग, शिक्षा, विनय', समाधि', अनियत विहार, परिणाम', उपधि त्याग, श्रिति', भावना, सल्लेखना, दिक्, श्रमण, अनुशिष्टि, परगणचर्या, मार्गणा, सुस्थित", उपसर्पण, निरूपण, प्रतिलेखन, पृच्छा, एकसंग्रह, आलोचना२३, गुणदोष", शय्या", संस्तर, निर्यापक, प्रकाशन, हानि, प्रत्याख्यान, क्षामण, क्षपणार, अनुशिष्टि, सारणा", कवच, समता, ध्यान, लेश्या", फल और शवत्याग। इन अधिकारों में से यथायोग्य अधिकार इंगिनीमरण की विधि में भी ग्रहणयोग्य (श्लोक २१०३) कहे गये हैं । यथा-श्लोक २१०४ में अर्ह, लिंग, शिक्षा, विनय और समाधि इन पाँच अधिकारों का संकेत है। श्लोक २१०४ में श्रिति, भावना और सल्लेखना अधिकारों का संकेत है। श्लोक २१०६ और २१०७ में दिक्, क्षमणा, अनुशिष्टि और परगणचर्या अर्थात् संघत्याग का संकेत है। श्लोक २१०८ और २५०९ में शय्या एवं संस्तर अधिकारों का संकेत है। श्लोक २११० और २१११ में लेश्या तथा आलोचना का संकेत है। श्लोक २११२ में प्रत्याख्यान अधिकार का और श्लोक २११३ में कवच, समता एवं ध्यान अधिकारों का संकेत है। अर्थात् इंगिनीमरण की विधि में भी उपर्युक्त चालीस अधिकारों में से बीस अधिकार ग्राह्य हैं। यह यथायोग्य' पद का अर्थ है।

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