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मामकण्डिका - 14196
वसति, संस्तर, आहार, उपधि, परिचारक एवं अपने शरीर से भी ममत्व का त्याग कर रत्नत्रय की आराधना में संलग्न होते हुए शरीर छोड़ देते हैं ।। २०९३ २०९४ ॥
स्वगणस्थमिति प्राज्ञैर्निरुद्धतरमीरितम् ।
अवशेषो विधिस्तस्य, ज्ञेयः पूर्वत्र दर्शितः ॥। २०९५ ।। इति निरुद्धतरम् ।
अर्थ - इस प्रकार विहार रहित अत्यन्त निरुद्ध अपने संघ में स्थित रहते हुए ही मरण के उपर्युक्त कारणों में से कोई भी कारण अकस्मात् उपस्थित हो जाने पर जो सल्लेखना ग्रहण की जाती है, प्राज्ञजन उसे निरुद्धतर अवीचार भक्तत्याग मरण कहते हैं। इस मरण की शेष विधि पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही है || २०९५ ॥
प्रश्न निरुद्ध एवं निरुद्धतर इन दोनों भक्तत्याग मरणों में क्या अन्तर है ?
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उत्तर - निरुद्ध और निरुद्धतर ये दोनों अवीचार भक्तत्याग मरण अपने संघ में रह कर ही होते हैं। इनमें निरुद्ध अवीचार भक्तत्याग में जंघा बल घट जाने के कारण अथवा अन्य किसी कारण से परसंघ में जाने लिए असमर्थ हुए साधु के समाधिग्रहण का कोई कारण उपस्थित हो जाने पर क्रमशः आहार का त्याग करते हुए वे आचार्य के निकट आलोचना करके प्रायश्चित्त लेते हैं और शक्ति क्षीण हो जाने पर ही परिचर्या कराते हैं। उसके पूर्वतक वे अपनी चर्या अपने आप ही करते निरुद्धतर अवीचार भक्तत्याग में अचानक ही कोई अनिवारित उपसर्ग या भयंकर रोगादि आ जाने पर जो भी आचार्य आदि निकट हों उनके सम्मुख अपने दोषों की आलोचना, निन्दा एवं गर्हा करके शीघ्रता पूर्वक चतुराहार का आजीवन को त्याग कर शरीर छोड़ देते हैं। निरुद्धतम या परम निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान का स्वरूप यदा संक्षिप्यते वाणी, व्याधि-व्याल- विषादिभिः । तदा शुद्ध-धियः साधोर्निरुद्धतममिष्यते ॥। २०९६ ।।
अर्थ- जब व्याधि या क्रूर पशु-पक्षियों द्वारा घोर उपसर्ग या विषादि के द्वारा वाणी एवं इन्द्रियों आदि की शक्ति समाप्तप्राय होने लगती है तब निर्मल बुद्धिधारी मुनिराज का निरुद्धतम अवीचार भक्त-प्रत्याख्यान मरण होता है || २०९६ ॥
हरन्ती जीवितं दृष्ट्वा, वेदनामनिवारणाम् ।
जिनादीनां पुरो धीरः, करोत्यालोचनां लघु ॥२०९७ ॥
अर्थ- जिसका रोकना अशक्य है ऐसी भयंकर वेदना द्वारा अपना जीवन हरण होते देख धीर-वीर साधु जिनेन्द्र के समक्ष अर्थात् जिनेन्द्रदेव को अपने हृदय कमल पर विराजमान कर अपने दोषों की शीघ्र ही आलोचना कर लेते हैं ||२०१७ |
आराधना-विधिः पूर्वं कथितो विस्तरेण यः ।
अत्रापि युज्यमानोऽसौ द्रष्टव्यः श्रुतपारगैः ॥ २०१८ ।।
अर्थ - श्रुतपारगामी आचार्यों द्वारा आराधना की जो विधि पूर्व में विस्तार पूर्वक कही गई है, वही विधि इस निरुद्धतम अवीचार भक्तत्याग मरण में भी यथायोग्य जाननी चाहिए || २०९८ ॥