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मरणकण्डिका -५७३
अर्थ - द्रव्य, क्षेत्र, शारीरिक शक्ति, काल एवं क्षपक के मनोबलादि कारणों को दृष्टि में रखकर अप्रगट भक्तप्रत्याख्यान होता है अर्थात् उपर्युक्त कारणों में से कोई भी कारण अनुकूल न हो तो साधु की सल्लेखना जनता में प्रगट नहीं की जाती॥२०११॥
प्रश्न - द्रव्य, क्षेत्रादि की अनुकूलता का विचार किस प्रकार करना चाहिए ?
उत्तर - क्षपक की वसतिका योग्य है या नहीं, एकान्त में है या नहीं, समाधि योग्य साधक उपकरण उपलब्ध होंगे या नहीं, परिवार के मनुष्य विवेकवान् और सहनशील स्वभाव वाले हैं या नहीं, क्षेत्र निरापद अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवों की बहुलता वाला तो नहीं है, राजा अनुकूल अर्थात् धर्मात्मा है या नहीं ? क्षपक का शारीरिक बल इस सल्लेखना रूपी ध्वजा-पताका का भार उठाने योग्य है या नहीं, काल कैसा है, तीक्ष्ण गर्मी का या सर्दी का समय है या वर्षायोग का समय है तथा क्षपक का स्वयं का मानस दृढ़, धैर्य युक्त एवं भूखप्यास आदि की वेदना सहन करने में उत्साहित है या नहीं और क्षपक के बन्धगण सल्लेखना के पक्ष में हैं या नहीं? इसी प्रकार की अन्य बातों का विचार करके देखना चाहिए। यदि उपर्युक्त बातों की अनुकूलता उपलब्ध नहीं हो रही है तो हमारे इस साधु ने आहार आदि का त्याग कर सल्लेखना धारण की है" यह बात जनता के समक्ष प्रगट नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार निरुद्ध अवीचार भक्तप्रत्याख्यान के कथन का प्रकरण पूर्ण हुआ।
निरुद्धतर अवीचार भक्तप्रत्याख्यान का विवेचन
निरुद्धतर अवीचार भक्त त्याग का लक्षण जलानल-विष-व्याल-सन्निपात-विसूचिकाः।
हरन्ति जीवितं साधो नूसा इव तामसम् ।।२०९२।। अर्थ - जैसे सूर्य की किरणें अन्धकार का हरण कर लेती हैं, वैसे ही जल, अग्नि, विष, जंगली क्रूर पशु आदि द्वारा किया हुआ उपसर्ग एवं सन्निपात तथा विसूचिका आदि भयंकर रोगादि में से कोई भी कारण साधु के प्राण तत्काल हरण कर लेता है।।२०९२।।
यावन्न क्षीयते वाणी, यावदिन्द्रिय-पाटवम्। यावद्धैर्य बलं चेष्टा, हेयादेय-विवेचनम् ॥२०९३ ।। तावद्वेदनया ज्ञात्वा, ह्रियमाणं स्व-जीवितम् ।
आलोचनां गुरोः कृत्वा, धीरा मुञ्चन्ति विग्रहम् ॥२०९४ ।। अर्थ - जल-अग्नि आदि का उपसर्ग उपस्थित हो जाने पर अथवा सन्निपात आदि रोगों की उत्पत्ति हो जाने पर जब तक साधक की बोलने की शक्ति नष्ट नहीं होती, जब तक इन्द्रियों की अपने विषय ग्रहण की चतुरता या सक्रियता क्षीण नहीं होती, तीव्र वेदना के कारण उनका धैर्य, बल एवं चेष्टा नष्ट नहीं होती तथा हेयउपादेय की बुद्धि क्षीण नहीं होती और वेदनादि के कारण आयु क्षीण होती दिखाई देती है, तब तक वे धीरवीर मुनिराज गुरु के निकट अथवा निकटवर्ती आचार्यादि के सम्मुख अपने दोषों की सम्यक् आलोचना करके