________________
मरणकण्डिका - ५७०
अर्थ - वे निर्यापक महानुभाव भी धन्य हैं, जिन्होंने क्षपक को परमादर देते हुए भक्तिपूर्वक उसकी आराधना सम्पन्न कराई है।।२०७८ ॥
निर्यापकों को प्राप्त होने वाला फल परस्य ढौकिता येन, धन्यस्याराधनाङ्गिनः।
निर्विघ्ना तस्य सा पूर्णा, सुखं सम्पद्यते मृतौ ॥२०७९ ॥ अर्थ - जो निर्यापक, अन्य महाधन्य क्षपक की आराधना सम्पन्न कराते हैं, मरणकाल में उन मुनियों की चार आराधनाएँ नियमतः सुख-शान्ति पूर्वक निर्विघ्न पूर्ण होती हैं ।।२०७९ ।।
तीर्थ रूप क्षपक मुनि के दर्शन करने वालों की प्रशंसा स्नान्ति क्षपक-तीर्थे ये, कर्म-कर्दम-सूदने।
पाप-पङ्केन मुच्यन्ते, धन्यास्तेऽपि शरीरिणः ॥२०८०।। अर्थ - कर्मरूपी कीचड़ को दूर करने वाले क्षपकरूप तीर्थ में जो भव्य जीव स्नान करते हैं, अर्थात् उनका दर्शन-वन्दन करते हैं वे धन्य हैं, क्योंकि वे भी पापरूप कीचड़ से छूट जाते हैं ।।२०८० ।।
क्षपक के तीर्थ रूप होने का समर्थन पर्वतादीनि तीर्थानि, सेवितानि तपोधनैः ।
जायन्ते यदि सत्तीर्थ, कथं न क्षपकस्तदा ॥२०८१ ॥ अर्थ - जहाँ तपस्वी जन तपस्या करते हैं, अर्थात् जिस पर्वत पर या नदी के तट आदि पर स्थित होकर साधुजन ध्यान करते हैं, आताफ्नादि योग धारण करते हैं एवं उत्कृष्ट श्रुत, अवधि और मनःपर्ययादि ज्ञान प्राप्त करते हैं यदि वे भी तीर्थ माने जाते हैं तब भक्तप्रत्याख्यान संन्यास रूप महातपस्वी क्षपक मुनिराज सत्तीर्थ कैसे नहीं हैं ? अवश्य ही हैं ।।२०८१॥
वन्दमानोऽश्नुते पुण्यं, योगिनां प्रतिमा यदि।
भक्तितो न तपो-राशिस्तदानी क्षपकः कथम् ।।२०८२ ।। अर्थ - देखिये ! यदि प्राचीन मुनिराजों की प्रतिमाओं की वन्दना करने वालों को पुण्य की प्राप्ति होती है तो वर्तमान में विद्यमान तप की राशि स्वरूप क्षपक की भक्ति एवं वन्दना करने वाले भव्य जीवों को पुण्योपार्जन कैसे नहीं होगा ? अवश्य ही होगा॥२०८२ ।।
क्षपक की वन्दना का फल सेव्यते क्षपको येन, शक्तितो भक्तितः सदा।
तस्याप्याराधना देवी, प्रत्यक्षा जायते मृतौ ॥२०८३ ।। अर्थ - जो भव्य जीव अपनी-अपनी शक्ति के आनुसार क्षपक की वन्दना, नमस्कार, पूजा एवं तीव्र भक्तिपूर्वक वैयावृत्य करता है उसे अपने मरणकाल में क्षपक के सदृश आराधना देवी प्रत्यक्ष में प्रगट हो जाती है अर्थात् भक्तिपूर्वक क्षपक की वन्दना एवं वैयावृत्य करने वालों का मरण समाधिपूर्वक ही होता है ।।२०८३॥