Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Shrutoday Trust Udaipur

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Page 593
________________ मरणकण्डिका - ५६२ वैमानिकः स्थलं यातो,ज्योतिष्को व्यन्तरः समम् । गतां च भावनस्तस्य, गतिरेषा समासतः ।।२०७३॥ अर्थ - यदि क्षपक का मस्तक उन्नत भूमिभाग पर दिखाई दे तो वह मरकर वैमानिक देव हुआ जानना, यदि समभूमि पर दिखाई दे तो वह ज्योतिष्क देव या व्यन्तर देव हुआ जानना और यदि कहीं गड्ढे में दिखाई दे तो वह भवनवासी देव हुआ जानना। इस प्रकार क्षपक की यह गति संक्षेप में कही गई है।॥२०७३ ।। इदं विधानं जिननाथ-देशितं, ये कुर्वते श्रद्दधते च भक्तितः। आदाय कल्याण-परम्परमिमे, प्रयान्ति निष्ठामपनीतकल्मषाम् ।।२०७४ ॥ इति आराधकानत्यागः। अर्थ - इस प्रकार क्षपक के समाधिमरण की तथा उसके मृत शरीर के क्षेपण आदि की सर्व विधि जिनेन्द्र देव द्वारा कही गई है। जो महामना इन समस्त विषयों की श्रद्धा करते हैं एवं सम्पूर्ण आराधना विधि को भक्तिपूर्वक स्वयं सम्पन्न करते हैं, वे कल्याण परम्परा को अर्थात् उत्तम मनुष्य और देवों के सुखों को प्राप्त कर अन्त में सर्व कर्ममलों को नष्ट कर सिद्धालय में निवास करते हैं अर्थात् मोक्ष चले जाते हैं ।।२०७४ ।। इस प्रकार आराधक अंग/शव त्याग नामक चालीसवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ॥४०॥ आराधक मुनिजनों की स्तुति भगवन्तोत्र ते शूराश्चतुरािधनां मुदा। सङ्घ-मध्ये प्रतिज्ञाय, निर्विघ्नां साधयन्ति ये॥२०७५ ।। अर्थ - जिन्होंने संघ के मध्य प्रतिज्ञा करके चार प्रकार की आराधना को हर्षपूर्वक निर्विघ्न पूर्ण किया है या करते हैं, वे शूरवीर एवं पूज्य हैं।।२०७५ ॥ ते धन्या ज्ञानिनो धीरा, लब्ध-नि:शेष-चिन्तिताः। यैरेषाराधना देवी, सम्पूर्णा स्ववशी-कृत्ता ॥२०७६ ॥ अर्थ - जिन्होंने इस आराधना महादेवी को सर्व प्रकार से अपने वश में करके अपने चिन्तित सम्पूर्ण संयम और तप को प्राप्त कर लिया है, वे धीर-वीर एवं ज्ञानी मुनिजन धन्य हैं ।।२०७६ ॥ किं न तैर्भुवने प्राप्त, वन्दनीयं महोदयैः। लीलयाराधना प्राप्ता, यैरेषा सिद्धि-सम्फली ॥२०७७ ।। अर्थ - जिन महानुभावों ने सिद्धिफल को देने वाली इस आराधना महादेवी को लीलामात्र में प्राप्त कर लिया है, उन महापुरुषों ने इस लोक में कौन से वन्दनीय श्रेष्ठ पद को प्राप्त नहीं कर लिया? अपितु सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त कर लिया है, क्योंकि सर्ववन्दनीय पदों में सिद्ध पद महावन्दनीय पद है।।२०७७॥ निर्यापकाचार्य की प्रशंसा धन्या महानुभावास्ते, भक्तितः क्षपकस्य यैः। ढौकिताराधना पूर्णा, कुर्वद्भिः परमादरम् ।।२०७८ ॥

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