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मरणकण्डिका - ५५१
सर्व-लेश्या-विनिर्मुक्त:, प्राणांस्त्यजति यो यतिः ।
आयुषो बन्धनेनैव, मुक्तो याति स निर्वृतिम् ॥२००४।। अर्थ - जो क्षपक सम्पूर्ण लेश्याओं से रहित होकर प्राणविसर्जन करता है वह सदा के लिए आयुबन्धन से मुक्त हो जाता है और परम निर्वाण मोक्ष को प्राप्त करता है ।।२००४ ।।
शुद्धतमा गुणवृद्धि-गरिष्ठा, भव्य-शरीरि-निवेशित-चेष्टाः । दूर-निवारित-संसृति-वेश्या, कस्य सुखं जनयन्ति न लेश्याः ॥२००५ ।।
इति लेश्याः । अर्थ · शुः गोगा कपल के गुणों की वृद्धि करने में प्रधान हैं, भव्य जीवों की चेष्टाओं को शान्त करने वाली हैं एवं दूर से ही संसार रूपी वेश्या को रोकने वाली हैं। ऐसी लेश्यायें किसे सुख उत्पन्न नहीं करती ? अपितु सभी को सुख देती हैं ।।२००५॥
इस प्रकार लेश्या नामा अधिकार पूर्ण हुआ॥३८ ।।
३९. आराधना फलाधिकार
आराधना रूपी ध्वजग्रहण का अधिकारी अविघ्नेन विशुद्धात्मा, लेश्या-शुद्धिमधिष्ठितः।
प्रवर्तित-शुभ-ध्यानो, गृह्णात्याराधना-ध्वजाम् ॥२००६ ।। अर्थ - इस प्रकार आहारादि के त्याग से ध्यान पर्यन्त सर्व कार्य जिसने निर्विघ्नता से सम्पन्न कर लिये हैं, जो लेश्या की शुद्धि से युक्त है एवं शुभ ध्यान में प्रवृत्त है, ऐसे क्षपक मुनिराज ही आराधनारूपी ध्वजा को ग्रहण करते हैं ।।२००६॥
आराधना देवी का माहात्म्य ददाति चिन्तितं सौख्यं, छिनत्ति भव-पादपम् ।
इत्थमाराधना देवी, भव्येनाराध्यते सदा ॥२००७ ।। अर्थ - जो मनोवांछित फल देती है और संसाररूपी वृक्ष को काटती है ऐसी आराधना देवी की आराधना भव्य जीवों के द्वारा सदा की जाती है।।२००७ ।।
यैरेषाराथना देवी, सिद्धि-सौध-प्रवेशिनी ।
आराधिता न तैर्लाभः, को लब्धो भुवनत्रये ॥२००८॥ अर्थ - सिद्धिप्रासाद में प्रवेश कराने वाली इस आराधना देवी का आराधन जिनके द्वारा नहीं किया जाता है उनके द्वारा तीन लोक में क्या प्राप्त किया जाता है? अर्थात् मनुष्य भव प्राप्त करने का उसे क्या लाभ हुआ? कुछ भी नहीं ॥२००८।।