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मरणकण्डिका - ५५४
अर्थ - जो क्षपक उत्तम रत्नत्रय के लिए महान् उद्योग करते हैं एवं कषाय रूपी शत्रुओं का मर्दन कर देते हैं वे मुनिराज अपने शरीर की विपुल कान्ति से स्वर्ग को व्याप्त कर देने वाले लौकान्तिक देव होते
ऋद्धयः सन्ति या लोके, यानीन्द्रिय-सुखानि च ।
क्षपकास्तानि लप्स्यन्ते, सर्वाण्येव्यत्यनेहसि ॥२०२०॥ अर्थ - इस संसार में जितनी ऋद्धियाँ हैं एवं जितने भी इन्द्रियसुख हैं उन सबको भद्र परिणामी क्षपक मुनि आगामी काल में प्राप्त कर लेगा ।।२०२० ॥
जघन्य-आराधना का फल जघन्याराधनां देवीं, तेजो-लेश्या-परायणाः।
आराध्य क्षपका: सन्ति, सौधर्मादिषु नाकिनः ॥२०२१ ।। अर्थ - (मध्यम आराधना करने वाले क्षपक की शुक्ल या पद्म लेश्या होती है।) पीतलेश्या वाले क्षपक मुनि जयन्य रूप से आराधना देवी की आराधना करके सौधर्मादि स्वर्गों में देव होते हैं; भवनत्रिक में जन्म नहीं लेते ॥२०२१॥
बहुनान किमुक्तेन, यत्सारं भुवनत्रये।
आराध्याराधनां देवीं, लभन्ते सन्मनीषिणः ॥२०२२।। अर्थ - बहुत अधिक कहने से क्या लाभ ? तीन लोक में जो-जो सारभूत पदार्थ हैं एवं सुख हैं, बुद्धिमान क्षपक मुनि उन सबको आराधना देवी की आराधना करके ही प्राप्त कर लेते हैं ।।२०२२ ।।
भुक्त्वा भोगं च्युताः सन्तो भूत्वा भुवि नरोत्तमाः ।
विहाय महतीं भूति, भूत्वा सिध्यन्ति साधवाः ।।२०२३ ॥ अर्थ - संस्तरारूढ़ आराधक क्षपक स्वर्ग जाते हैं, वहाँ के दिव्य भोग भोग कर स्वर्ग से च्युत हो मनुष्यों में भी उत्तम अर्थात् चक्रवर्ती, बलभद्रादि हो यहाँ भी समस्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं, पश्चात् उसे भी त्याग कर जिनदीक्षा ग्रहण कर चारों आराधनाओं की आराधना करते हुए मोक्ष चले जाते हैं ।।२०२३॥
धृति-स्मृति-मति-श्रद्धा-वीर्य-संवेग-भागिनः । परीषहोपसर्गाणां, जेतारो विजितेन्द्रियाः ।।२०२४ ।। सयथाख्यातचारित्राः, पवित्र-ज्ञान-दर्शनाः। विशोध्य मलिनां लेश्यां, शुद्ध-ध्यान-विवर्धिनः ॥२०२५ ।। शुक्ललेश्याङ्गनाश्लिष्टा, ध्वस्त-नि:शेष-कल्मषाः ।
भवन्ति सहसा सिद्धा, भुवनोत्तम-वन्दिताः ।।२०२६ ॥ अर्थ - धृति, स्मृति, बुद्धि, श्रद्धा, शक्ति एवं संवेग गुणों से सम्पन्न, उपसर्ग और परीषहों के विजेता,