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मरणकण्डिका - ५५९
चारित्रप्रेमी और चारित्र से प्रीति न रखने वालों के साथ चारित्र अप्रेमी, इस प्रकार जो नट के सदृश अनेक रूप धारण करते हैं वे संसक्त मुनि होते हैं। ये मुनि पार्श्वस्थ के संसर्ग से पार्श्वस्थ, कुशील के संसर्ग से कुशील और स्वच्छन्द के संसर्ग से स्वयं भी स्वच्छन्द हो जाते हैं।
क्षपक साधुओं का मरणसमय सन्मार्ग से च्युत होने का कारण
सङ्घ - कृत्ये निरुत्साहाः, किमनेन ममेति ये ।
ते भवन्ति शुरुलेच्छा, वाह-वादि दिवौकसाम् ।। २०३६ ।।
अर्थ - सुखिया स्वभाव आदि के कारण जो साधु संघ के कार्यों में निरुत्साही रहते हुए कहते हैं कि संघस्थ साधुओं की वैयावृत्त्य आदि से तथा अन्य भी कार्यों से मुझे क्या प्रयोजन है ? मैं कुछ भी कार्य नहीं करूँगा, इत्यादि। सन्मार्ग से च्युत होते हुए ऐसे साधु मरण कर स्वर्ग तो जाते हैं किन्तु वहाँ देवसभा में वाद्य बजाने वाले एवं गीत गाने वाले होते हैं || २०३६ ॥
इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ क्या है ?
प्रश्न
उत्तर - इसका तात्पर्य अर्थ यह है कि जो मुनि यहाँ संघ के कार्यों से दूर रहते हैं तथा वैयावृत्त्य आदि का अवसर उपस्थित होने पर मुख छिपाते फिरते हैं कि यह कार्य मुझे न करना पड़े। 'मुझे इससे क्या ऐसा मान कर जो संघ के सभी कार्यों में अनादरभाव रखते हैं, वे मुनि मरण कर स्वर्ग में नीच चाण्डाल जैसे देवों
उत्पन्न होते हैं अर्थात् सौधर्मादि कल्पों के अन्त में बसने वाले चाण्डाल जाति के देव होते हैं, ये जैसे मुनिपर्याय में वैयावृत्त्यादि कार्यों से दूर रहते थे उसी के फलस्वरूप यहाँ देवसभा से दूर रहते हैं, इन्हें सभा में प्रवेश नहीं मिलता ।
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कन्दर्पभावना' - शीलाः, कन्दर्पाः सन्ति नाकिनः ।
निन्द्या: किल्विषिकाः सन्ति, मृताः किल्विष - भावनाः ॥। २०३७ ॥ अभियोग्य क्रियासक्ता, आभियोग्याः सुरा मृताः । आसुरी- -भावनाः कृत्वा, मृत्वा सन्त्यसुराः पुनः ।।२०३८ ॥ सम्मोह - भावनोद्युक्ताः, सम्मोहास्त्रिदशा मृताः । विराधकैः पराप्येवं प्राप्यते देव - दुर्गति: ।। २०३९ ।।
भावना
अर्थ - कन्दर्प भावना स्वभाव वाले क्षपक मरण कर स्वर्ग में कन्दर्प जाति के देव होते हैं। किल्विष से युक्त क्षपक मरण कर किल्विषिक जाति के निन्दनीय देव होते हैं। जो क्षपक या साधु अभियोग्य अर्थात् दास क्रियाओं में लगे रहते हैं वे मरण कर आभियोग्य जाति के देव होते हैं तथा आसुरी भावना में तत्पर रहने वाले भ्रष्ट साधु मरण कर असुरकुमार जाति के देव होते हैं। सम्मोहन भावना में संलम रहने वाले साधुजन मरण कर सम्मोह अर्थात् दुदुगजाति के देव होते हैं। ( कामविकार के आधिक्य से ये देव देवियों के साथ सदैव कामसेवन करते रहते हैं ।) मरण काल में रत्नत्रय की एवं चारों आराधनाओं की विराधना करने वाले साधु इसी प्रकार की अन्य भी देवदुर्गति को अर्थात् हीन देवपर्याय को प्राप्त होते हैं ।। २०३७, २०३८, २०३९ ॥
१. कन्दप आदि भावनाओं के लक्षण भक्तप्रत्याख्यानमरण के भावना नामक दसवें अधिकार में श्लोक ९८८ से हैं। वहाँ द्रष्टव्य हैं।