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मरणकण्डिका - ५६१
४०. आराधक त्याग नामक अन्तिम अधिकार प्रारम्भ
मृतकशरीर के विसर्जन की व्यवस्था एवं कालगतस्यास्य, बहिरन्त-निवासिनः ।
त्यजन्ति चलती गात्रं, यावृत्व-करा: स्वयम् ।।२०४५।। अर्थ - इस प्रकार नगर आदि के बाहर या भीतर निवास करने वाले क्षपक का मरण हो जाने पर उसके शरीर को वैयावृत्य करने वाले परिचारक मुनि स्वयं ही सावधानी पूर्वक यथास्थान ले जाकर छोड़ देते हैं ।।२०४५ ।।
प्रश्न - क्षपक का शव ले जाने वाले साधु कैसे होते हैं ?
उत्तर - जो मुनिराज शारीरिक सामर्थ्य से सहित, धैर्यशाली एवं निर्भय हों तथा जिन्होंने अनेक बार सल्लेखना विधि देखी हो या कराई हो ऐसे मुनिगण क्षपक के मृत शरीर को ले जाकर किसी उचित और प्रासुक भूमि पर छोड़ आते हैं। शव को स्वयं विसर्जित करने का और अन्तिम विधि में प्रयत्नशील रहने का कारण
साधूनां स्थितिकल्पोऽयं, वर्षासु ऋतु-बन्धयोः।
समस्तैः साधुभिर्यत्नाद्यनिरूप्या निषधका ।।२०४६ ।। अर्थ - यह साधुओं का स्थितिकल्प है कि वर्षायोग के प्रारम्भ और अन्त में तथा ऋतु के प्रारम्भ में सर्व साधुओं को प्रयत्न पूर्वक निषद्या का प्रतिलेखन एवं दर्शन करना चाहिए ।।२०४६॥
प्रश्न - निषद्या किसे कहते हैं, स्थितिकल्प कौन-कौन से हैं और अपने शरीर में भी निरीहवृत्ति धारण करने वाले मुमुक्षु साधुगण स्वयं मृतक शरीर को ले जाने का पुरुषार्थ क्यों करते हैं ?
उत्तर - जिस स्थान पर क्षपक के शरीर का विसर्जन किया जाता है उस स्थल को निषद्या कहते हैं।
मरणकण्डिका के पाँचवें सुस्थितादि अधिकार के श्लोक ४३६ से ४३८ में दश स्थितिकल्प कहे गये हैं। यथा - अचेलकल्व', उद्दिष्ट शय्यात्याग, उद्दिष्ट आहार त्याग, राजपिण्ड त्याग, कृतिकर्म" प्रवृत्त, वृतारोपण अर्हत्व, जेष्ठत्व', प्रतिक्रम, मासैक वासिता और पर्या । यहाँ इन सब के लक्षण भी लिख्खे हुए
हैं।
मूलाराधना गाथा १९६७ में 'मासेव वासिता' पद के स्थान पर 'वासावासे एवं उडुबंधे पद आया है। पं. आशाधर जी ने अपनी टीका में 'वासावासे' पद का अर्थ किया है कि - वर्षासु चतुर्मास्यामेकत्र । वासे प्रतिपद्यमाने चातुर्मासिकयोगप्रारम्भ इत्यर्थः। उडुबंधे ऋतु-प्रारम्भे, पडिलिहिदब्बा यदि विशेषः। 'उक्तं च' श्लोक में भी इसी की पुष्टि की गई है कि -
श्रवणानगं स्थिति कल्पो, मासे मासे तथर्तुबन्धे वा।
प्रतिलेख्यैषा नियतं, निष्यका सर्व-संयमिभिः ।। अर्थात् वर्षायोग स्थापन के प्रारम्भ में और ऋतु के प्रारम्भ में सर्व साधुओं को नियमत: निषद्या का प्रतिलेखन एवं दर्शन करना चाहिए। इस प्रकार निषद्यादर्शन साधुओं का आवश्यक कर्तव्य बन गया। इसी कारण मुमुक्षु साधुगण शव को स्वयं स्थापित कर निषद्या-निर्माण के लिए प्रयत्न करते हैं।