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मरणकण्डिका - ५४९
जो त्यागशील, क्षमाशील, भद्र प्रकृति, साधुओं की सेवा, पूजा और दानादि में रत रहते हैं उन्हें पद्मलेश्या के परिणाम वाले जानना चाहिए और जो सर्वक्षेत्र एवं सर्वजनों में समता भाव रखते हैं, निदान नहीं करते तथा इष्टानिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करते वे शुक्ललेश्या युक्त होते हैं। इनमें कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यायें त्याज्य हैं एवं पीतादि तीन शुभ लेश्यायें ग्राह्य हैं।
लेश्याओं की शुद्धि का निर्देश कुरुष्व सुख-हेतूनां, सल्लेश्यानां विशोधनम्।
यत्सङ्गानामशेषाणां, सर्वथापि विवर्जनम् ।।१९९२ ॥ अर्थ - हे क्षपकराज ! लेश्या अर्थात् परिणामविशुद्धि में परिग्रह ही बाधक होता है अत: सर्व परिग्रह का सर्वधा त्याग कर तुम सुखदायक शुभ लेश्याओं की विशुद्धि करो अर्थात् आगे-आगे परिणाम अधिक निर्मल बनाने का पुरुषार्थ करो ||१९९२ ।।
लेश्यानां जायते शुद्धिः, परिणाम-विशुद्धितः ।
मितिः परिणामानां कषायोपशमे सति ॥१९९३ ।। अर्थ - यह नियम है कि परिणामों की विशुद्धि से लेश्याओं की विशुद्धि होती है और परिणाम विशुद्ध तब होते हैं जब कषायें उपमित होती हैं ।।१९९३ ।।
मन्दी भवन्ति जीवस्य, कषायाः सङ्ग-वर्जने ।
कषाय-बहुल: सर्वं, गृह्णीते हि परिग्रहम् ।।१९९४ ।। अर्थ - जो बाह्य परिग्रह का त्याग करता है उसकी कषायें मन्द होती हैं, क्योंकि जिसकी कषायें तीव्र होती हैं वही सर्व परिग्रह को ग्रहण करता है॥१९९४॥
वृद्धि-हानी कषायाणां, सङ्ग-ग्रहण मोक्षयोः।
अग्निनामिव काष्ठादि-प्रक्षेपण-निरासयोः ।।१९९५ ।। अर्थ - जैसे ईंधन डालने से अग्नि वृद्धिंगत होती है और ईंधन न डालने से या निकाल लेने से अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही परिग्रह के ग्रहण या संचय करने से कषायें वृद्धिंगत होती हैं और परिग्रह का त्याग कर देने से कषायें मन्द हो जाती हैं।।१९९५॥
कषायो ग्रन्थ-सङ्गेन, क्षोभ्यते तनुधारिणाम्।
प्रशान्तोपि ह्रदादीनां, पाषाणेनेव कर्दमः ॥१९९६ ।। अर्थ - जैसे सरोवर में नीचे दबा हुआ भी कीचड़ पत्थर डालने से क्षुभित होता हुआ ऊपर आ जाता है, वैसे ही परिग्रह के सम्पर्क से या ग्रहण करने से संसारी प्राणियों के सत्तास्थित या उपशमित भी कषायें उदय में आ जाती हैं या तीव्र हो जाती हैं ॥१९९६ ॥
अन्तर्विशुद्धितो जीवो, बहिर्ग्रन्थं विमुञ्चति । अन्तरामलिनो बाह्यं, गृहीते हि परिग्रहम् ।।१९९७ ।।