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मरणकण्डिका - ५४६
अर्थ
धन, कषात रूपा के समय में मित्र सदृश है, कषाय रूप जंगली श्वापदों से रक्षा करने वाला है; ध्यान, कषाय रूप आँधी, तूफान एवं वायु से बचाने के लिए गर्भगृह के सदृश है तथा यह ध्यान कषायरूप अग्नि को शान्त करने के लिए सरोबर सदृश है ।। १९८२ ।।
कषाय- व्यसने मित्रं, कषाय व्याल-रक्षणम् । कषाय-मारुते गेहं, कषाय- ज्वलने हृदः ॥। १९८२ ।।
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कषायार्कातपे छाया, कषाय- शिशिरेऽनलः । कषायारिमये त्राणं, कषाय-व्याधि-भेषजम् ॥। १९८३ ॥
अर्थ यह ध्यान, कषायरूप सूर्य के आतप से बचाने के लिए छाया सदृश है, कषायरूप शिशिर ऋतु सम्बन्धी शीत की बाधा को नष्ट करने के लिए अनि सदृश है, कषाय रूप शत्रु से रक्षा करने वाला है तथा कषाय रूप रोग की औषधि है ।।१९८३ ॥
तोयं विषय- तृष्णायामाहारो विषय क्षुदि ।
जायते योगिनो ध्यानं, सर्वोपद्रव सूदनम् ।। १९८४ ॥
अर्थ
यह ध्यान विषय तृष्णा को शान्त करने के लिए मिष्टजल के सदृश है तथा विषयरूप क्षुधा की बाधा उत्पन्न हो जाने पर यतिजन यह ध्यानरूप आहार ही ग्रहण करते हैं। अधिक क्या कहें ? योगीजनों के समस्त उपद्रवों को शान्त करने वाला यह ध्यान ही है, ऐसा निश्चय करो । १९८४ ॥
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संस्तरारूद एवं ध्यानरत क्षीणकाय क्षपक की सजगता के चिह्न आराधनावबोधार्थं, योगी व्यावृत्ति - कारणम् ।
तदा करोति चिह्नानि निश्चेष्टो जायते यदा ।। १९८५ ।।
अर्थ - संस्तरारूढ़ क्षपक शरीर की कृशता के कारण जब मन, वचन एवं काय से निश्चेष्ट जैसा हो जाता है तब स्वयं अथवा निर्यापकाचार्य द्वारा पूछे जाने पर अपनी आराधना की संलग्नता का बोध कराने के लिए आगे कहे जाने वाले संकेत करता है ।। ९९८५ ॥
हुङ्कारा-नेत्रमूर्धकम्पाञ्जलि क्रियाः ।
यथा संकेतमव्यग्रः क्षपकः कुरुते सुधीः ॥। १९८६ ।।
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अर्थ - निर्यापकाचार्य द्वारा सावधानी पूछी जाने पर ज्ञानवान् किन्तु क्षीणकाय क्षपक अपनी जाग्रति अर्थात् सावधानी का संकेत हुंकार से, अंगुलि से, हाथ उठाकर या भौंहें उठाकर या मस्तक हिलाकर या हाथ की पाँचों अंगुलियाँ उठा कर करता रहता है । १९८६ ।।
संकेतवन्त: परिचारकास्ते, चेष्टा- विशेषेण विदन्ति साधोः । आराधनोद्योगमवेत - शास्त्रा, धूमेन चित्रांशुमिव ज्वलन्तम् ।।१९८७ ।।
इति ध्यानम् ।