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मरणकण्डिका - ५४०
श्रद्धा की दुर्लभता - धर्मज्ञान की धारणा स्थायी हो जाने पर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप स्वरूप आत्म-परिणाम ही धर्म है, यही धर्म अभ्युदय एवं मोक्षसुख देता है ऐसी श्रद्धा होना दुर्लभ है क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म का उदय होने से दृढ़ श्रद्धान नहीं हो पाता है। सम्यग्दर्शन कभी देशनादि पाँचलब्धियों के बिना नहीं होता। पाँच लब्धियों में भी करणलब्धि का होना अति-आवश्यक है, किन्तु यह लब्धि सुलभ नहीं है। कभी, क्वचित् किसी जीव को ही प्राप्त होती है, सर्वदा नहीं।
इस प्रकार उत्तरोत्तर दुर्लभ ऐसी वस्तुओं की प्राप्ति मुझे हो चुकी है, अब धर्माचरण में प्रमादी होना उचित नहीं है। ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभ भावना है।
देशादिष्वपि लब्धेषु, दुर्लभा बोधि-रञ्जसा ।
कुपथाकुलिते लोके, रागद्वेष-वशीकृते ।।१९६२॥ अर्थ - देश-कुल एवं मनुष्य भव आदि के प्राप्त हो जाने पर भी रागद्वेष के वशवर्ती हुए तथा मिथ्यामार्ग से भरे हुए इस लोक में जिनदीक्षा रूप या रत्नत्रय की पूर्णतारूप या समाधिमरण रूप अथवा धर्मध्यानशुक्लध्यानरूप बोधि का प्राप्त होना अति दुर्लभ है ।।१९६२।।।।
इत्थं यो दुर्लभां बोधिं, लब्ध्वा तत्र प्रमाद्यति ।
रत्न-पर्वतमारुहर, ततः पतति नष्ट-धीः ।।१९६३॥ अर्थ - इस प्रकार उक्त क्रमानुसार दुर्लभ बोधि को प्राप्त कर जो मनि उसमें रामाद करता है. मूर्वबुद्धि वह, मानों रत्नों के पर्वत पर चढ़कर उससे नीचे गिरता है।।१९६३ ।।
नष्टा प्रमादतो बोधि:, संसारे दुर्लभा भवेत्।
नष्टं तमसि सद्रत्नं, पयोधौ लभ्यते कथम् ।।१९६४ ॥ अर्थ - प्रमादरश यदि एक बार बोधि नष्ट हो गई तो इस संसार में उसका पुनः प्राप्त होना महादुर्लभ होगा। अन्धकार में समुद्र के मध्य गिरा हुआ रत्न कैसे मिल सकता है ? अपितु नहीं मिल सकता ।।१९६४ ॥
विपुल-सुखफलानां, कल्पने कल्पवल्लीं, भव-सरण-तरूणां कल्पने या कुठारी । भवति मनसि शुद्धा, सा स्थिरा शुद्ध-बोथिः, फलममलमलम्भि प्राणितव्यस्य तेन ।।१९६५॥
इति बोधिः। अर्थ - विपुल सुखरूपी फलों को देने के लिए जो कल्पलता के समान है और संसाररूपी बन के वृक्षों को काटने के लिए जो कुल्हाड़ी के समान है ऐसी यह शुद्ध बोधि जिसके मन में स्थिरता को प्राप्त हो जाती है उस महामुनि के बोधि द्वारा मोक्षरूपी निर्दोष फल प्राप्त हो गया समझना चाहिए ||१९६५।।
इस प्रकार बोधिदुर्लभ भाषना पूर्ण हुई १५१२॥